SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 174
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) उत्तरोत्तर गुणस्थानों में कर्मबन्ध के हेतु समाप्त होते जाते हैं मिथ्यात्व से लेकर योग तक पाँचों समस्त कर्मों के सामान्य रूप से बन्ध के कारण हैं। मिथ्यात्व से लेकर योग तक पाँचों हेतुओं में जहाँ पूर्व-पूर्व के बन्ध-हेतु होंगे, वहाँ उसके आगे के सभी बन्ध-हेतु होंगे, यह कर्म सिद्धान्त का नियम है। अर्थात्-मिथ्यात्व के होने पर अविरति आदि चार और अविरति के होने पर प्रमाद आदि शेष तीन अवश्य होंगे। इसी प्रकार प्रमाद के होने पर कषाय और योग अवश्य होंगे। परन्तु जब उत्तर बन्धहेतु होगा, तब पूर्व बन्धहेतु हो और न भी हो। जैसेअविरति के होने पर द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ गुणस्थान में मिथ्यात्व नहीं रहेगा; मिथ्यात्व रहेगा केवल प्रथम गुणस्थान में। इसी प्रकार अन्य बन्धहेतुओं के सम्बन्ध में समझ लेना चाहिए।१ गुणस्थान की दृष्टि से ही इन पाँच बन्धहेतुओं का क्रम रखा गया है। प्रथम गुणस्थान में मिथ्यात्व प्रबल हेतु है। दूसरे, तीसरे, चौथे गुणस्थान में सम्यदर्शनसहित अविरति है। पाँचवें-छठे में सम्यग्दर्शनसहित विरति है, किन्तु साथ में प्रमाद है। सातवें से बारहवें तक मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद तो नहीं है, किन्तु दसवें गुणस्थान तक कषाय है, ग्यारहवें गुणस्थान में कषाय उपशान्त है। बारहवें में. मिथ्यात्वादि चारों नहीं हैं, किन्तु योग है, तेरहवें में भी योग है। और चौदहवें गुणस्थान में योग भी सर्वथा नष्ट हो जाते हैं, पूर्वोक्त चारों तो पहले से नामशेष हो जाते हैं। इस प्रकार पहले से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक उत्तरोत्तर मिथ्यात्वादि पाँचों बन्धहेतु क्रमशः हटते जाते हैं। चौदहवें गुणस्थानं तक आते-आते क्रमशः सभी बन्धहेतु लुप्त हो जाते हैं। वैसे तो इन पाँचों बन्धहेतुओं के स्वरूप और कार्यों के सम्बन्ध में 'कमों के आस्रव और संवर' नामक छठे खण्ड में काफी विश्लेषण किया गया है। और मिथ्यात्व के सम्बन्ध में 'कर्मबन्ध के सर्वाधिक प्रबल कारण : मिथ्यात्व' शीर्षक निबन्ध में पर्याप्त प्रकाश डाला गया है, फिर भी बन्ध की दृष्टि से इन पाँचों पर विशेष प्रकाश डालना आवश्यक है।२ ये कर्मबन्ध के हेतु कैसे-कैसे बन जाते हैं ? वैसे आत्मा अपने शुद्ध रूप में ज्ञान, दर्शन, सुख और शक्ति आदि अनन्त गुणों का समूहरूप है। उसका कर्म के साथ सम्बन्ध जोड़ने वाली मिथ्यात्व आदि चार या पाँच मुख्य शक्तियाँ हैं। ये पाँचों कर्म के सामान्य बन्धहेतु हैं। शुद्ध आत्मा को इन पाँच कारणों से कर्म लग जाते हैं। सर्वप्रथम कर्म के साथ सम्बन्ध जुड़ता है-मिथ्या मान्यता १. तत्त्वार्थसूत्र विवेचन, (पं. सुखलालजी), पृ. १९४ २. (क) देखें-कर्मों के आस्रव और संवर नामक छठे खण्ड में 'कर्मों के आने के पाँच आम्रवद्वार' नामक निबन्ध । (ख) सप्तम खण्ड में 'कर्मबन्ध का सर्वाधिक प्रबल कारण : मिथ्यात्व' शीर्षक निबन्ध में। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy