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________________ कर्मबन्ध का सर्वाधिक प्रबल कारण : मिथ्यात्व ११९ हिंसा को निर्दोष मानते थे, उन्हें भी सूत्रकृतांग में यथार्थ उत्तर दिया गया है। इसी प्रकार पुण्य को धर्म (कर्मक्षय का कारण) मानकर उससे मोक्षप्राप्ति मानने वालों को मिथ्यात्वी कहकर संवरनिर्जरारूप धर्म को ही कर्म से मुक्त होने का यथार्थ उपाय बताया है। मिथ्यात्व के शेष १० भेदों का विश्लेषण इस प्रकार मिथ्यात्व के ५+१0-१५ भेदों का संक्षिप्त वर्णन हुआ। शेष १० भेद इस प्रकार हैं-(१६) लौकिक मिथ्यात्व, (१७) लोकोत्तर-मिथ्यात्व, (१८) कुप्रावचनिक मिथ्यात्व, (१९) न्यून-मिथ्यात्व, (२०) अधिक मिथ्यात्व, (२१) विपरीत मिथ्यात्व, (२२) अक्रिया-मिथ्यात्व, (२३) अज्ञान-मिथ्यात्व, (२४) अविनय-मिथ्यात्व और (२५) आशातना मिथ्यात्व। इस प्रकार पूर्वोक्त १५ और इन दस भेदों को मिलाने से मिथ्यात्व के कुल २५ भेद हो जाते हैं। लौकिक मिथ्यात्व ४ प्रकार का है-देवमूढ़ता, गुरुमूढ़ता, धर्ममूढ़ता और लोकमूढ़ता। इसी प्रकार लोकोत्तर मिथ्यात्व भी देवगत, गुरुगत, और धर्मगत होते हैं। अर्थात इन लोकोत्तर पदार्थों से लौकिक या भौतिक वस्तुओं की याचना करना, उसके लिए मनौती, चढ़ावा आदि करना लोकोत्तर मिथ्यात्व है। कुप्रावनिक मिथ्यात्व भी देवगत, गुरुगत, धर्मगत यो तीन प्रकार के होते हैं। हरि, हर, ब्रह्मा आदि अवीतरागी देवों को मोक्षप्राप्ति के लिए मानना-पूजना, तथैव बाबरा, जोगी, भंगड़ी, तांत्रिक आदि असद्गुरुओं को सद्गुरु मानकर मोक्ष प्राप्ति के लिए उनकी भक्ति, पूजा, श्रद्धा आदि करना एवं अन्य धर्मसम्प्रदायगत सावध क्रियाओं को मोक्ष प्राप्ति की इच्छा से मानना-स्वीकारना धर्मगत कुप्रावचनिक मिथ्यात्व है। जिन वचनों से न्यून, अधिक या विपरीत प्ररूपणा करना न्यून, अधिक तथा विपरीत मिथ्यात्व है। अक्रिया, अज्ञान, अविनय और आशातना मिथ्यात्व नाम से ही प्रसिद्ध है।२ काल की अपेक्षा मिथ्यात्व के तीन प्रकार इस प्रकार मिथ्यात्व के लम्बे-चौड़े परिवार को कर्मबन्ध का सर्वाधिक प्रबल कारण समझ कर उसके प्रत्येक पहलू से, प्रत्येक कोण से बचने का प्रयत्न करना चाहिए। यह नहीं समझना चाहिए कि मिथ्यात्व का कभी अन्त नहीं हो सकेगा। इसी शंका के निवारणार्थ काल की दृष्टि से मिथ्यात्व के तीन प्रकार बताए हैं (१) अनादिअनन्त (अभव्य जीवों का), (२) अनादिसान्त (भव्य जीवों का) तथा (३) सादि सान्त (एक बार नष्ट होने पर फिर उत्पन्न हो जाना और यथाकाल नष्ट हो जाना।)१.. १. (क) मनुस्मृति अ.२ (ख) सूत्रकृतांग श्रु.२, अ. ६, उ. १, सू. २७ से ४२ तक तथा श्रु.२, अ.६, उ.१ सू.५३-५५ तक एवं सूत्रकृतांग २/५/उ.१, १२ से २९ गा. तक (ग) सूत्रकृतांग श्रु.१, अ.६, उ.१ गा.१ से ५ तक २. (क) कर्मग्रन्थ भा.२ (मरुधरकेसरी) प्रस्तावना पृ. १५ (ख) जैन तत्व प्रकाश, पृ. ४१९ ३. जैन तत्व प्रकाश, पृ. ४०६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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