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________________ ११८ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) और बहुत-से संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों को लगता है। पूर्वोक्त चार मिथ्यात्व वाले जीवों की अपेक्षा अनाभोग मिथ्यात्व वाले जीव अधिक हैं। पूर्वोक्त पांच भेद ही प्रकारान्तर से भी सूचित किये गए हैं-(१) एकान्त, (२) विनय, (३) विपरीत, (४) संशय और (५) अज्ञान। कर्मोपचय एवं कर्मबन्ध का निषेध तथा लोक-अलोक, जीव-अजीव आदि ३२ बातों का सर्वथा निषेध भी एकान्त, विपरीत एवं अज्ञान मिथ्यात्व के अन्तर्गत है। एक आचार्य ने मिथ्यात्व के सात भेद किये हैं, वे भी इन्हीं पांच में गतार्थ हो जाते हैं-(१) एकान्तिक, (२) सांशयिक, (३) मूढदृष्टि, (४) नैसर्गिक, (अगृही मिथ्यात्व), (५) वैनयिक, (६) विपरीत और (७) व्युग्राहित (गृहीत) मिथ्यात्व।२ विपरीत मिथ्यात्व की अपेक्षा से मिथ्यात्व के दस भेद स्थानांगसूत्र में विपरीत-मिथ्यात्व की दृष्टि से मिथ्यात्व के दस प्रकारों का उल्लेख इस प्रकार है-(१) धर्म में अधर्म-संज्ञा, (२) अधर्म में धर्म-संज्ञा, (३) मार्ग । कुमार्ग-संज्ञा, (४) कुमार्ग में मार्ग-संज्ञा, (५) जीव में अजीव-संज्ञा, (६) अजीव : जीव-संज्ञा, (७) साधु में असाधु-संज्ञा, (८) असाधु में साधु-संज्ञा, (९) मुक्त अमुक्त-संज्ञा और (१०) अमुक्त में मुक्तसंज्ञा।३ मिथ्यात्व के दस भेदों में से कतिपय भेदों का विश्लेषण ___ 'संज्ञा' का अर्थ यहाँ समझना, मानना, श्रद्धा रखना अथवा बुद्धि रखना आदि है। जैसे-हिंसा, असत्य आदि अधर्म हैं, पाप हैं, इन्हें धर्म मानना और कहना-यज्ञ, पूजा, होम आदि में होने वाली हिंसा, हिंसा नहीं है, ब्राह्मण असत्य बोले तो असत्य नहीं है, इत्यादि सब मिथ्यात्व है। अहिंसा आदि में धर्म है, किन्तु अपने सम्प्रदाय, जाति, प्रान्त, राष्ट्र, पंथ, मार्ग आदि के नाम पर, उसकी उन्नति (अवनति) एवं प्रतिष्ठा के लिए दूसरे धर्म-सम्प्रदाय, पंथ, जाति, प्रान्त, राष्ट्र, समाज, आदि के व्यक्तियों को सताने, मारने, मिथ्यादोषारोपण करने, निन्दा-चुगली करने, अपशब्द बोलने, सम्यक्त्व बदलाने, बरगलाने आदि हिंसादिजनक कार्यों में धर्म समझना भी मिथ्यात्व है। इसी प्रकार पृथ्वीकाय, अकाय, तेजस्काय, वायुकाय एवं वनस्पतिकाय आदि स्थावर जीवों में जीव (चेतना) होते हुए भी उसे अजीव समझना या मानना मिथ्यात्व है। सूत्रकृतांग में उन लोगों की मिथ्या मान्यताओं को चुनौती दी गई है, जो नदी आदि के जल में स्नानादि करने से शुद्धि या पाप-मुक्ति मानते थे। इसी प्रकार उन बौद्धों और हस्तितापसों को भी करारा उत्तर दिया गया है, जो बौद्ध कहते थे-अमुक वध्य प्राणी (पिता या पुत्र) को जड़वस्तु मानने पर हिंसा नहीं होती, अथवा शाक्य भिक्षुओं को अपने लिये मारे हुए पशु का मांस भोजन देने से पुण्य और स्वर्ग मानते थे। जो हस्तितापस एक हाथी को मार कर कई महीनों तक उस पर निर्वाह करने की १. जैन तत्त्व प्रकाश से भावांश ग्रहण, पृ. ४२३ २. सम्यग्दर्शनः एक अनुशीलन, पृ. ४४७-४४८ ३. स्थानांग सूत्र, स्थान १0, सू. ७३४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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