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________________ कर्मबन्ध का सर्वाधिक प्रबल कारण : मिथ्यात्व ११५ नौ पदार्थों को सत्, असत्, सदसत्, अवक्तव्य, सद्-अवक्तव्य, असद्-अवक्तव्य एवं सद्-असद्-अवक्तव्य, इन सात भंगों से गुणा करने से ९४७=६३ हुए, फिर सत्, असत्, सदसत् और अवक्तव्य, इन ४ भेदों को मिलाने से ६३+४=६७ भेद होते हैं। __क्रियावाद आदि चारों को मिथ्यात्व क्यों कहा जाता है? क्रियावाद को मिथ्यात्व इसलिए कहा गया है कि इनकी एकान्त मान्यता है कि जीव को पाप-पुण्यरूप क्रिया लगती रहती है। इस क्रिया के निमित्त से जीव लोक-परलोक को स्वीकार करता है। क्रियावादी एकमात्र क्रिया की ही उपयोगिता स्वीकारते हैं, ज्ञान और दर्शन की उत्थापना करते हैं। अक्रियावाद की एकान्त मान्यता है कि जगत् के समस्त पदार्थ, यहाँ तक कि आत्मा भी निष्क्रिय-अस्थिर है। उनमें पुण्य-पाप की क्रिया सम्भव नहीं है। किसी के मतानुसार आत्मा आकाशवत् निराकार होने से पुण्य-पाप-क्रिया नहीं कर सकती। किसी के मत से यह आत्मा पंचभूतों से समुत्पन्न है। मृत्यु होने पर पाँचों तत्व अपनेअपने में विलीन हो जाते हैं। अतः पंचभूतों से भिन्न न आत्मा है, न ही परमात्मा, न ही स्वर्ग, नरक, पुण्य, पाप क्रिया है। जो इनकी प्ररूपणा करते हैं, वे जगत् को ठगते हैं। अत; इन क्रियाओं के भ्रम में न पड़ो, खाओ-पीओ मौज उड़ाओ। इस एकान्त हठाग्रही मान्यता के कारण अक्रियावाद मिथ्यात्व है। विनयवाद इसलिए मिथ्यात्व है कि विनय के नाम पर इसमें खुशामदी, चापलूसी, जीहजूरी, ठकरसुहाती आदि चलते हैं। सबके सामने झुककर, स्वयं को हीन मानकर चलना ही इस वाद का लक्ष्य है। किसी की गलत बात को भी प्रगट न करना, उत्कृष्ट को उत्कृष्ट और निकृष्ट को निकृष्ट भी न कहना, तथाकथित विनयवाद का मिथ्यात्व अज्ञानवाद को मिथ्यात्व इसलिए कहा जाता है कि इसमें अज्ञान को कल्याणकारी और उत्तम माना जाता है। इसका कहना है-ज्ञान ही सब अनर्थों की जड़ है। ज्ञानवान होगा, वह विवाद, कुतर्क, तनातनी, संघर्ष, वाक्कलह, द्वेष आदि बढ़ाएगा। विरोधी पंक्ष का बुरा सोचता है। इससे तो हम अज्ञानी अच्छे ! न जानते हैं, न तानते हैं। हम पुण्य-पाप को जानते समझते भी नहीं, इसलिए हमें दोष भी न लगेगा, द्वेष और संघर्ष भी न होगा। ये चारों अभिगृहीत मिथ्यात्व के अन्तर्गत क्यों? इन चारों एकान्तवादी वादों को अभिगृहीत या आभिग्रहिक मिथ्यात्व इसलिए कहते हैं कि इस मिथ्यात्व से ग्रस्त व्यक्ति एकान्त पूर्वाग्रही या हठाग्रही होते हैं। वे किसी भी निर्दोष देवाधिदेव, निर्ग्रन्थ गुरु या सद्धर्मतत्त्व की बात नहीं मानते। जिनेन्द्रवाणी भी नहीं सुनते। न ही सत्यासत्य का निर्णय करते हैं। वे लकीर के फकीर, रूढ़िग्रस्त लोग बाप-दादों की गलत परम्परा से चिपटे रहते हैं। वे कहते हैं, हमारे माने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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