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________________ ११४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) राजवार्तिक में इनका स्पष्टीकरण करते हुए कहा गया है कि नैसर्गिक मिथ्यात्व एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च, म्लेच्छ, शबर, पुलिन्द आदि स्वामियों के भेद से अनेक प्रकार का है। परोपदेश निमित्तक के चार और ३६३ भेद सर्वार्थसिद्धि में परोपदेशनिमित्तक मिथ्यात्व चार प्रकार का बताया गया है। (१) क्रियावादी (२) अक्रियावादी ( ३ ) विनयवादी और (४) अज्ञानवादी । यों तो परोपदेशनिमित्तक मिथ्यात्व के परिणामों की दृष्टि से संख्यात असंख्यात तथा अनुभाग की दृष्टि से अनन्त विकल्प हो सकते हैं। परन्तु इस मिथ्यात्व के पूर्वोक्त मुख्य ४ भेदों के ३६३ उपभेद होते हैं। इन मुख्य चारों के दर्शन को मिथ्यादर्शन इसलिये कहा गया. है कि इन्हें एकान्तरूप से अपने मत का हठाग्रह है । ' क्रियावादी मिध्यात्व - क्रियावादी एकान्तरूप से कहते हैं - जीवादि ९ पदार्थ एकान्तरूप से हैं ही। ऐसा एकान्तरूप से कहने का अर्थ होगा- जीवादि ही पदार्थ हैं। ऐसी स्थिति में पर की अपेक्षा से वे ८ नहीं भी हैं; ऐसा नहीं कहा जा सकेगा। ऐसा होने से जगत् के सभी पदार्थ एक हो जाएँगे। इस क्रियावाद - मिथ्यात्व के नौ तत्त्वों पर स्वतः परतः, फिर नित्य - अनित्य इन दो भेदों की स्थापना ९×२x२= ३६ भेद हुए, इन पर काल स्वभाव आदि पांच भेदों परक स्थापना करने से ३६×५ = १८० भेद : क्रियावाद के हुए। अक्रियावादी मिथ्यात्व - अक्रियावादी कहते हैं - जीवादि पदार्थ सर्वथा नहीं हैं। यहाँ एकान्तरूप से जीवादि ७ पदार्थों का सर्वथा निषेध किया गया है। उसके बाद स्वतः परतः भेद करने से ७×२ = १४ भेद हुए। उस पर काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, ईश्वर और आत्मा इन ६ पदों के साथ गुणा करने से ८४ भेद अक्रियावादी मिथ्यात्व ! के होते हैं। क्रियावादी आत्मा, कर्मफल आदि को मानते हैं जबकि अक्रियावादी इन्हें बिलकुल नहीं मानते। विनयवादी मिथ्यात्व - विनयवादी सर्वत्र, सभी अवस्थाओं में सबका विनय करना ही एकान्त एकमात्र धर्म मानते हैं, और इसी से स्वर्ग-मोक्ष की प्राप्ति मानते हैं। गधे से लेकर गाय तक, चाण्डाल से लेकर ब्राह्मण तक सभी स्थलचर, खेचर, जलचर आदि समस्त प्राणियों को नमस्कार करते रहना ही विनयवाद है। इनके ३२ भेद इस प्रकार हैं-देव, राजा, यति, ज्ञाति, वृद्ध, अधम, माता और पिता, इन आठों का मन, वचन, काया और दान, यों चार प्रकार से विनय करना । यों ८x४-३२ भेद हुए । २ अज्ञानवादी मिथ्यात्व-जो अज्ञान को ही एकमात्र श्रेयस्कर मानते हैं, तथा ज्ञान का सर्वथा विरोध करते हैं, वे अज्ञानवादी हैं। इनके ६७ भेद इस प्रकार है, - जीवादि १. (क) सर्वार्थसिद्धि ( पूज्यपाद आचार्य), ८/१/३७५/१ (ख) राजवार्तिक ८ /१/६, तथा ८/१/२७ २. इनकी विशेष व्याख्या नन्दीसूत्र, सूत्रकृतांग टीका, तथा पंचसंग्रह आदि में देखें । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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