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________________ कर्मबन्ध का सर्वाधिक प्रबल कारण : मिथ्यात्व ११३ मोहनीय कर्म (मिथ्यात्वमोह, सम्यक्त्वमोह और मिश्रमोह) का बन्धन। ये सातों सम्यक्त्व के घातक और मिथ्यात्व के उत्पादक और उत्तेजक हैं। इसलिए चारित्र प्राभृत में इन्हें 'सप्तार्चि' कहा है। मिथ्यात्व के दो बहिरंग कारण हैं-अज्ञान और मोह। विपरीत मान्यता के चार प्रमुख बिन्दु : मिथ्यात्व के आधार विपरीत मान्यता के चार प्रमुख बिन्दु हैं, जिन पर मिथ्यात्व आथारित है (१) स्व-पर की एकत्वबुद्धि, अर्थात्-पर को अपने (आत्मा के) स्वभाव से भित्र न समझना, दोनों को एक मानना। (२) अहंबुद्धि या पर-स्वामित्व की बुद्धि। स्पष्ट शब्दों में कहें तो अपने आपको संसार की सजीव-निर्जीव वस्तुओं का मालिक मानना। (३) 'पर' में कर्तृत्व-बुद्धि, अर्थात्-स्वयं को संसार की वस्तुओं का कर्ता-निर्माता मानना। (४) 'पर' के भोक्तृत्व भाव की बुद्धि। स्पष्टतः कहें तो परपदार्थों का उपभोक्ता मैं हूँ, ऐसा समझना।२ विपरीत दर्शन का फलित दो प्रकार का विपरीत दर्शन दो प्रकार का फलित होता है-(१) वस्तु-विषयक यथार्थ श्रद्धान का अभाव और (२) वस्तु का अयथार्थ श्रद्धान। पहले और दूसरे में इतना ही अन्तर है कि पहला बिलकुल मूढ़दशा में भी हो सकता है, जबकि दूसरा विचारदशा में ही होता है। विचारशक्ति का विकास होने पर भी अभिनिवेशपूर्वक जब किसी एक मान्यता, दृष्टि या आग्रह को पकड़ लिया जाता है, तब अतत्त्व में पक्षपात होने के कारण वह दृष्टि मिथ्यादर्शन या मिथ्यात्व कहलाती है; जो उपदेशजन्य होने से अभिगृहीत कहलाता है। जब तक विचारदशा जागृत नहीं होती, तब तक अनादिकालीन आवरण होने के कारण केवल मूढ़ता होती है। उस स्थिति में न तो तत्त्व का श्रद्धान होता है और न अतत्त्व का। मात्र मूर्छित दशा होने से उसे तवं का अश्रद्धानं कहा जाता है। वह दशा नैसर्गिक या उपदेश निरपेक्ष होने से अनभिग्रहीत मिथ्यात्व दृष्टि कही जाती है।३ मिथ्यात्व के उत्पत्ति की दृष्टि से दो प्रकार : नैसर्गिक एवं परोपदेश निमित्तक इसलिए एक जैनाचार्य ने उत्पत्ति की दृष्टि से मिथ्यात्व दो प्रकार का बताया है(१) नैसर्गिक अथवा अनर्जित और (२) परोपदेशपूर्वक या अर्जित मिथ्यात्वा तत्त्वार्य १. (क) सम्यग्दर्शन : एक अनुशीलन (अशोकमुनि), पृ. ४४२ - (ख) चारित्र प्राभृत गा. १७ २. वीतरागता : एक समीचीन दृष्टि, पृ. १४ ३. तत्त्वार्थसूत्र विवेचन (पं सुखलालजी), पृ. १९३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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