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________________ ११२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) “सर्वज्ञ-भाषित पदार्थों के प्रति विमोह (मूढता), संशय, विपर्यय, एवं अनध्यवसाय होना मिथ्यात्व है।"१ तत्त्वार्थ श्रुत-सागरी वृत्ति में इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहा गया है-दर्शनमोहनीय के उदय से सर्वज्ञ वीतराग-प्रणीत सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञानसम्यक्चारित्ररूप से उपलक्षित मोक्षमार्ग से पराङ्मुख होकर तत्त्वार्थश्रद्धान के प्रति निरुत्सुक एवं पराङ्मुख आत्मा का अशुद्ध तत्त्वों के परिणामस्वरूप हिताहितविवेकविकल एवं जड़बुद्धि हो जाना मिथ्यात्व है।२ आन्तरिक मिथ्यात्व का लक्षण और स्वरूप आन्तरिक मिथ्यात्व का लक्षण धवला में इस प्रकार किया गया है-"जिसके उदय से आत्मा, आगम और पदार्थों पर अश्रद्धा होती है, वह मिथ्यात्व है।" युक्त्यनुशासन में कहा गया है-"स्व-धर्म में अभिनिवेश, अथवा एकान्त धर्माभिनिवेश जैसे कि यह सर्वथा नित्य ही है, कथञ्चित् अनित्य नहीं, इत्यादि प्रकार से मिथ्याश्रद्धान मिथ्यादर्शन होता है।" आवश्यकनियुक्ति में भी कहा गया है-"मिथ्यात्वमोहनीय कर्म-पुद्गलों के सान्निध्य-विशेष से आत्मा का वैसा (विपरीत) परिणाम होना मिथ्यात्व है।" अविद्यारूप मिथ्यात्व का लक्षण इस प्रकार है-“अनित्य को नित्य, अशुचि (अपवित्र-अशुद्ध) को शुचि (पवित्र या शुद्ध), दुःख को सुख और अनात्मा को आत्मा मानना और कहना ही अविद्यारूप मिथ्यात्व है।३ निश्चय दृष्टि से आत्मा तथा आत्मगुणों से भिन्न सजीव-निर्जीव परपदार्थों को विभावों (क्रोधादि) र्को अपने मानना मिथ्यात्व है। जीव के आत्मश्रद्धान में विपरीत मान्यता-उलटी श्रद्धा अर्थात्-वस्तु का जैसा स्वभाव नहीं है, स्वरूप नहीं है, वैसा मानना, तथा वस्तु जैसी है, उसे वैसी न मानना यही मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व में प्रवृत्त होने के दो प्रमुख कारण मिथ्यात्व में प्रवृत्त होने के दो मुख्य कारण हैं-(१) अन्तरंग और (२) बहिरंग | मिथ्यात्व का अन्तरंग कारण है-अनन्तानुबन्धी कषाय-चतुष्क का उदय और त्रिविध १. सर्वज्ञ-भाषित-पदार्थेषु विमोह-संशय-विपर्ययानध्यवसायरूपो मिथ्यात्वम् । -मूलाचार वृ. ५-४० २. न्यदुदयात् सर्वज्ञ-वीतराग-प्रणीत-सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-लक्षणोपलक्षित-मोक्षमार्ग- पराङ्मुख ___सत्रात्मा तत्त्वार्थश्रद्धान-निरुत्सुकः तत्त्वार्थ श्रद्धान पराङ्मुखः अशुद्ध-तत्व-परिणामः सन हिताहित-विवेक-विकल: जडादिरूपतयाऽवतिष्ठते तन्मिथ्यात्वं नाम...। -त. वृ. श्रुत. ८/९ ३. (क) जस्सोदएण अत्तागम-पयत्येसु असद्धप्पाययं कम्म मिच्छत्ते णाम । -धवला पु. १३, पृ ३५९ (ख) एकान्तधर्मेऽभिनिवेशः एकान्तधर्माभिनिवेशः, नित्यमेव सर्वथा, न कर्यचिदनित्यमित्यादि __मिथ्यात्वश्रद्धानम् । -युक्तयनुशासन टी. ५२ (ग) मिथ्यात्वमोहनीय-कर्म-पुद्गल-सानिध्य-विशेषादात्म-परिणामो मिथ्यात्वम् । -आवश्यक नि. हरि. वृ. १२५० (घ) अनित्याशुचि-दुःखात्मसु नित्य-शुचि-सुखात्म-ख्यातिरविद्या । . -योगदर्शन व्यासभाष्य ४. वीतरागता : एक समीचीन दृष्टि (डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री), पृ. १३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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