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कर्मबन्ध का सर्वाधिक प्रबल कारण : मिथ्यात्व १११ निष्कर्ष यह है कि मिथ्यात्वयुक्त ज्ञान (अज्ञान) ही बंध का आद्य और प्रबल कारण है। कर्मग्रन्थ विज्ञों ने मिथ्यात्व को कर्मबन्ध का कारण बता कर स्पष्ट कह दिया है, जबकि अज्ञान मिथ्यात्वरूप कारण का कार्य होने से वह अस्पष्ट था, अब स्पष्ट हो गया।
मिथ्यात्व का लक्षण : विविध दृष्टियों से मिथ्यात्व, अज्ञान (मिथ्याज्ञान), अविद्या, मिथ्यादर्शन, मिथ्यादृष्टि आदि शब्द मिथ्यात्व के ही पर्यायवाची समझने चाहिए। मिथ्यात्व के विषय में जैनाचार्यों ने व्यवहार और निश्चय दोनों दृष्टियों से काफी विश्लेषण और भेद-प्रभेदों का निरूपण किया है। व्यवहारदृष्टि से मिथ्यात्व का लक्षण करते हुए आचार्य हेमचन्द्र ने कहा“अदेव (जो देवाधिदेव वीतराग नहीं है उन) में देव-बुद्धि, अगुरु (जो निर्ग्रन्थ गुरु नहीं हैं, उन) में गुरु-बुद्धि और अधर्म में धर्मबुद्धि रखना मिथ्यात्व है, क्योंकि वह विपरीत रूप है।"१ समयसार में मिथ्यात्व का लक्षण किया गया है-“विपरीत अभिनिवेश के उपयोग-विकाररूप जो विपरीतश्रद्धान शुद्ध जीवादि पदार्थों के विषय में होता है, वह मिथ्यात्व है।"२ कर्मबन्ध की टीका में इसका स्पष्ट अभिप्राय व्यक्त करते हुए कहा गया है-जहाँ राग-द्वेष-मोहरूप कलंकों (दोषों) से युक्त होने से जो अदेव हैं, उनके प्रति देवबुद्धि हो, जो धर्मज्ञ, धर्मपरायण, धर्माचरणकर्ता तथा जीवों को धर्मशास्त्र का उपदेशकर्ता हो, वह गुरु है, इसके विपरीत हो वह अगुरु है। ऐसे अगुरु के प्रति गुरुबुद्धि हो, तथा जिसमें अहिंसा, संयम, तप, सत्य, शौच, ब्रह्मचर्य इत्यादि सद्धर्म के तत्त्व न हों, उस अधर्म के प्रति धर्मबुद्धि हो, वहाँ मिथ्यात्व है।३ 'धर्म संग्रह' में तत्त्वविषयक मिथ्यात्व का लक्षण कहा गया है-“अतत्त्वों आदि के प्रति तत्व आदि का अभिनिवेश (हठाग्रह-दुराग्रह) होना मिथ्यात्व है।"४ जैसे-सर्वज्ञ वीतराग प्रभु ने जीवादि नौ तत्त्वों, षद्रव्यों तथा आत्मवाद, कर्मवाद, क्रियावाद, लोकवाद, मोक्षमार्ग आदि के विषय में व्यवहार-निश्चय दृष्टि से जैसा प्ररूपण-प्रतिपादन किया है, उससे विपरीत, अभिनिवेश एवं दुराग्रहपूर्वक एकान्त एवं प्रमाण-नय-निरपेक्ष कथन एवं श्रद्धान, करना मिथ्यात्व या मिथ्यादर्शन है। अथवा मूलाचार के शब्दों में
१. अदेवे देवबुद्धिर्या गुरुधीरगुरौ च या । अधर्म धर्मबुद्धिश्च मिथ्यात्वं तद्विपर्ययात् ॥
-योगशास्त्र २/३ २. विपरीताभिनिवेशोपयोग-विकाररूपं शुद्ध जीवादि पदार्य विषये विपरीतश्रद्धान मिथ्यात्यम् ।
-समयसार जय. वृ. ९५ ३. राग-द्वेष-मोहादिकलकाङ्कितेऽदेवेऽपि देवबुद्धिः; धर्मज्ञो धर्मकर्ता च सदा धर्म-परायणः।
सत्वानां धर्मशास्त्रोपदेशको गुरुच्यते; इत्यादि-प्रतिपादित-गुरुलक्षण- विलक्षणेऽगुरावपिगुरुबुद्धिः, संयम-सूनृत-शौच-ब्रह्म-सत्यादि-स्वरूप-धर्म-प्रतिपक्षेऽधर्मे धर्मबुद्धिरिति मिथ्यात्वम् ।
-कर्म-विपाक (दे. स्वो. वृ. ९६) ४. मिथ्यात्वं अतत्त्वादिषु तत्त्वाघभिनिवेशः ।
-धर्मसंग्रह (म. वृ.) १५
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