SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) हुए सम्प्रदाय, या पंथ में बड़े-बड़े विद्वान, धनिक एवं सत्ताधीश हैं, क्या वे सभी मूर्ख हैं ? ऐसी मिथ्यात्वग्रस्त आत्माएँ धर्म के नाम पर पाप करने में नहीं हिचकिचातीं। १ दृष्टि - विपर्यास की अपेक्षा से मिथ्यात्व के पांच प्रकार वस्तुतः मिथ्यात्व एक प्रकार का दृष्टि-विपर्यास है। इसके कारण मोहकर्मवश जीव को सारी ही बातें उलटी नजर आती हैं। उसकी मान्यता और बुद्धि भी विपरीत बन जाती है। उसका सोचना, मानना, जानना और आचरण सभी विपरीत हो जाते हैं। इसे लेकर कर्मग्रन्थ में मिथ्यात्व के पांच प्रकार बताये हैं - ( 9 ) आभिग्रहिक, (२) अनाभिग्रहिक, (३) आभिनिवेशिक, (४) सांशयिक और (५) अनाभोगिक। २ T अभिग्रहिक या अभिगृहीत एवं अनभिगृहीत या अनाभिग्रहिक का स्वरूप बता चुके हैं। अभिगृहीत मिथ्यात्व की अपेक्षा अनभिगृहीत मिथ्यात्व अधिक भयंकर होता है। क्योंकि उसमें किसी प्रकार की विचारदशा ही नहीं रहती, सतत मूढ़दशा रहती है। विचारशील व्यक्ति के लिए अभिगृहीत मिथ्यात्व भले ही भयंकर हो, परन्तु उसमें विचार और विकास सीधी ( यथार्थ) दिशा में परिवर्तित होने का अवकाश रहता है, मगर अनभिगृहीत मिथ्यात्व में तो वैसा अवकाश कतई नहीं रहता। इन दोनों की क्रमशः तीव्रज्वर और दीर्घकाल - स्थायी मन्दज्वर से तुलना की जा सकती है । ३ अभिगृहीत मिथ्यात्व में आत्मा, परमात्मा आदि के स्वरूप के विषय में विपर्यास : होता है। जैसे कि सूत्रकृतांगसूत्र में बताया गया है - कई दार्शनिक आत्मा को तो मानते हैं, परन्तु देह को ही आत्मा मानते हैं, कई देह, इंन्द्रिय, मन आदि को आत्मा मानते हैं, कई पंचभूतों से आत्मा को उत्पन्न मानते हैं, वे आत्मा को पंचभूतात्मक मानते हैं। कई अकारकवादी सांख्य आत्मा को कर्ता नहीं, केवल भोक्ता मानते हैं, वे प्रकृति को ही कर्त्री मानते हैं। कई आत्मा को एकान्त कूटस्थ नित्य मानते हैं, कई क्षणिकवादी बौद्ध दार्शनिक आत्मा को क्षणभंगुर मानते हैं, क्षणस्थायी मानते हैं। कई बौद्ध दार्शनिक आत्मा को चार धातुओं से निष्पन्नं मानते हैं। इन सबको वहाँ क्रमशः तज्जीव- तच्छरीरवादी, बहिरात्मवादी, भूतचैतन्यवादी, अकारकवादी, क्षणिकवादी, चतुर्धातुकवादी मानकर गृहीतमिथ्यात्व से ग्रस्त कहा गया है। ४ इसी प्रकार परमात्मा (ईश्वर) के विषय में भी सूत्रकृतागसूत्र में विभिन्न मिथ्यात्वग्रस्त दर्शनों का निरूपण किया गया है, उनमें कई जगत्कर्तृत्ववादी, कई त्रैराशिक अर्थात् अवतारवादी, कई विष्णु, महेश्वर आदि द्वारा जगत् की विभिन्न प्रकार से रचना का प्रतिपादन करने वले बताये गए हैं । ५ १. जैनतत्त्वप्रकाश (पूज्य अमोलकऋषिजी महाराज) से भावांशग्रहण, पृ. ४१७-४१८ २. अभिग्गहियं अणभिग्गहियं, तह अभिनिवेसिय चेव । संसइयमणाभोगं मिच्छत्तं पंचहा भणियं ॥ ३. सम्यग्दर्शन : एक अनुशीलन ४. देखें - सूत्रकृतांग प्रथम श्रुतस्कन्ध में अ. १, उ. १ में ११ से २७ गाथा तक ५. देखें, सूत्रकृतांग श्रु. १, अ. १, उ. ३ में गा ५ से १६ तक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy