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________________ १०६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) और तदनुकूल प्रवृत्ति करने लगता है। सारी बातें विपरीत हो जाती हैं। अन्धकार-प्रेमी जीवों के समान मिथ्यात्वग्रस्त का दृष्टिकोण ही विपरीत या मिथ्या हो जाता है। वह खतरा बढ़ाने वाली, पतन की ओर ले जाने वाली, मोहान्धकार में भटकाने वाली वस्तु को अपनाता है, उसी को हितकर, सुखकर और विषयों की प्यास बुझाने वाली मानता है। अर्थात्-खतरनाक वस्तुओं पर उसका विश्वास दृढ़ होता है, और खतरा मिटाने वाली वस्तु को देखकर वह दूर भागता है। ऐसा क्यों होता है? इसलिए कि वह मिथ्यात्व-ग्रस्त है, उसकी दृष्टि मिथ्या है, उसका मोह प्रबल है, उसकी बुद्धि में विपर्यास है; उसका विश्वास प्रकाश को अन्धकार और अन्धकार को प्रकाश मानने लगता है। उसमें राग-द्वेष, मोह और कषाय का प्राबल्य है। यही कारण है कि कई आदमी तत्वज्ञान की बातों को घोट लेते हैं, आत्मा-अनात्मा के विषय में घंटों चर्चा कर लेते हैं, शास्त्रों की बातों को बारीकी से कह सकते हैं; परन्तु अन्तर् में दृष्टि मिथ्या होने से, दर्शन सम्यक् न होने से, तत्त्वज्ञान पर दृढ़निष्ठा और श्रद्धा न होने से सम्यक् श्रुत (शास्त्र) भी उसके लिए मिथ्या हो जाते हैं, इसके विपरीत सम्यग्दृष्टि सम्पन्न व्यक्ति के लिए तथाकथित मिथ्याश्रुत (मिथ्यात्वप्रेरक शास्त्र) भी सम्यकश्रुत ही जाते हैं। 'नन्दीसूत्र' में यह बात स्पष्टरूप से प्ररूपित की गई है।' 'नयचक्र वृत्ति' में भी इसी तथ्य का समर्थन किया गया है कि मिथ्यादृष्टि के तत्त्वविचार, नय, प्रमाण आदि सब दुर्नय, दुष्प्रमाण और अतत्व हो जाते हैं। मिथ्यात्व के कारण उसका तत्त्वज्ञान में अज्ञानरूप और उसका चारित्र भी कुचारित्र (अविरतिरूप) हो जाता है।२ 'योगसार में भी कहा गया है-जिस प्रकार कीचड़ अपने संग से कपड़े को मलिन कर देता है उसी प्रकार मिथ्यात्व अपने संग से दर्शन, ज्ञान और चारित्र को मलिन कर देता है।३ मिथ्यात्व रहेगा, तब तक अविरति, प्रमाद, कषाय आदि बने रहेंगे ___ इतना ही नहीं, जब तक व्यक्ति के अन्तर् में मिथ्यात्व रहेगा, तब तक परभाव को पाने तथा विभावों में प्रवृत्त होने की चंचलता, आकांक्षा, अतृप्ति, इच्छा आदि बर्न रहेगी। सांसारिक सुख की प्यास बुझेगी नहीं। परपदार्थों की प्यास बनी रहेगी। प्रमा भी बार-बार होता रहेगा। सांसारिक पदार्थों का उपभोग करने पर भी अतृप्ति बर्न रहेगी। विस्मृति होगी, भ्रान्ति होगी, संशय विपर्यय और अनध्यवसाय होगा। एक बा जान लेने पर भी कि धनादि सांसारिक पदार्थों या विषयों में सुख नहीं है; परन्तु जर दैनन्दिन जीवन व्यवहार के क्षेत्र में उतरेंगे, तब इन बातों को बिलकुल भूल जाएँगे बुद्धि पर मोह का ऐसा जबर्दस्त पर्दा पड़ जाएगा कि सूझेगा भी नहीं कि धनारि १. एयाई चेव सम्मदिहिस्स सम्मत्त परिग्गहत्तेण सम्मसुयं, एयाई चेव. मिच्छादिहिस मिच्छत्तपरिग्गहत्तेण मिच्छासुर्य। -नन्दीसूत्र २. नयचक्रवृत्ति ४१५, पंचास्तिकाय ता. वृ. ४३/६। ३. चेतना) का ऊर्ध्वारोहण से भावग्रहण, पृ. ८० योगसार बन्धाधिकार, श्लोक १५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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