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________________ कर्मबन्ध का सर्वाधिक प्रबल कारण : मिथ्यात्व १०५ धर्म कहने लगता है। कभी सत्य, अचौर्य और ब्रह्मचर्य को वह धर्म मानता है, कभी अधर्म। उसकी यह मान्यता पागल के प्रलाप के समान होती है, क्योंकि वह शुद्ध तत्व को नहीं जानता है। मिथ्यात्व : सात ज्वालाओं से युक्त मिथ्यात्व को जैनकर्म-विज्ञान-विशेषज्ञों ने 'सप्तार्चि'-सप्तज्वालायुक्त कहा है। वे सात ज्वालाएँ ये हैं-अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, तथा सम्यक्त्व-मोहनीय, मिथ्यात्व-मोहनीय और मिश्र-मोहनीय। इसलिए मिथ्यात्व को कर्मबन्ध का आद्य और प्रधान कारण कहा गया है। मिथ्यात्वग्रस्त जीव न तो बंध को जानता-समझता है और न ही उस से मुक्त होने के उपायों को समझता है। इसलिए मिथ्यात्व को कर्मबन्ध का सर्वाधिक प्रबल कारण मानकर इससे मुक्त होने अथवा न बंधने का प्रयत्न करना चाहिए।२ मिथ्यात्व का बंधन टूटे बिना अविरति आदि के बंधन नहीं टूटेंगे मिथ्यात्व का बन्धन इतना जबर्दस्त है कि जब तक इसका बन्धन नहीं टूटता, तब तक अविरति का बन्धन, प्रमाद का बन्धन, कषाय का बन्धन और योग का बन्धन नहीं टूट सकता। यानी मिथ्यात्व का बन्धन रहने की हालत में कर्म का चक्रव्यूह तोड़ा नहीं जा सकता। मिथ्यात्व कर्मबन्ध का मूल है, उसके रहते अविरति आदि बन्धकारणों को हटाया नहीं जा सकेगा। मिथ्यात्व : परम्परागत मौलिक कारण मिथ्यात्व-बन्ध के पारम्परिक कारणों की मीमांसा करते हुए भगवान् महावीर से पूछा गया-"भंते ! कर्म का बन्ध कैसे होता है? उसका क्रम क्या है?" इस पर भगवान् ने कहा-“जब व्यक्ति का ज्ञानावरण-कर्म-विशिष्ट (तीव्र) उदयावस्था में होता है, तब दर्शनावरण कर्म का उदय होता है। अर्थात्-जानने और देखने पर आवरण आ जाता है। जब दर्शन पर आवरण आता है, तब दर्शनमोह कर्म का उदय होता है। जब दर्शनमोह कर्म का उदय होता है, तब मिथ्यात्व आता है।३ मिथ्यात्व के प्रभाव से सारी चीजें विपरीत दिखाई देती हैं इसका रहस्यार्थ यह है-किसी व्यक्ति में मिथ्यात्व का अस्तित्व रहेगा तो व्यक्ति उक्त मिथ्यात्व के प्रभाव से नित्य को अनित्य, सुख को दुःख, तथा दुःख के साधनों को सुख के साधन और सुख के साधनों को दुःख के साधन मानने लग जाता है। उल्लू की तरह वह अन्धकार को ही प्रकाश और प्रकाश को अन्धकार मानने, समझने १: तत्त्वार्थसूत्र १/३३ में-'सदसतोरविशेषाद् यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत्' की व्याख्या। २. चारित्र-प्राभृत गा. १७ ३. प्रज्ञापना सूत्र पद २३ : Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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