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________________ कर्मबन्ध का सर्वाधिक प्रबल कारण : मिथ्यात्व १०७ पर-पदार्थ या विषय आदि सुख के साधन नहीं हैं। यह सब इसलिए होता है, कि उसकी तह में मिथ्यात्व आसन जमाए बैठा है। वह सत्य को विपरीत रूप में ग्रहण करने तथा उसे विस्मृत हो जाने को बाध्य करता है। आचार्य पूज्यपाद ने भी इसी तथ्य को अभिव्यक्त किया है-"मूढ़ आत्मा जिसमें विश्वास करता है, उससे बढ़कर भयास्पद वस्तु संसार में कोई नहीं है, तथैव मूढ़ आत्मा जिससे डरता है, दूर भागता है, उससे बढ़कर शरणदायिनी वस्तु संसार में कोई नहीं है।"१ मिथ्यात्व के कारण विपरीत धारणा का गुरुतर प्रभाव इसलिए मिथ्या दृष्टि अंतर में बैठी हुई सूक्ष्म, किन्तु विपरीत धारणा का नाम है, जो अतत्त्व में तत्त्व की, तथा तत्त्व में अतत्त्व की ओर, एवं अतथ्य में तथ्य की तथा तथ्य में अतथ्य की ओर कल्पना को दौड़ाती है। सत्य का भाव हृदयंगम ही नहीं होने देती, चेतनतत्त्व का सम्यक् भान नहीं होने देती, प्रत्युत शरीर, इन्द्रिय और मन तथा उनके विषयों में ही मैं और मेरेपन की, अथवा इष्ट-अनिष्ट की या प्रिय-अप्रिय की अथवा मनोज्ञ-अमनोज्ञ की कल्पना बनाये रखती है। इसलिए मिथ्यात्व क्रोध आदि समस्त कषाय-नोकषायों का बीज होने के कारण सब दोषों का गुरु या पिता है। मिथ्यात्व को समस्त कर्मबन्धों में अग्रणी एवं प्रबल कहा जाय तो कोई अत्युक्ति न होगी।२ विभिन्न दर्शनों में भी बन्ध का मूल कारण : मिथ्याज्ञान या अविद्या दार्शनिक क्षेत्र में भी इस प्रश्न को बहुत महत्वपूर्ण माना गया है कि आत्मा कर्म से क्यों और किस कारण से बंधता है? जैनदर्शन ने जैसे मिथ्यात्व को कर्मबन्ध का सर्वाधिक प्रबल कारण कहा है, वैसे ही वैदिक दर्शनों ने अज्ञान, मिथ्याज्ञान या अविद्या आदि को समस्त दुःखों (कर्मबन्धों) का कारण बताया है। सांख्यदर्शन ने स्पष्ट कहा है-“अज्ञान (ज्ञान के विपर्यय) से बन्ध होता है, ज्ञान से मुक्ति होती है।" ईश्वर-कृष्ण ने सांख्यकारिका में बंध का कारण प्रकृति-पुरुष-विषयक विपर्ययज्ञान को माना है। यही विपर्यय मिथ्याज्ञान है। योगदर्शन ने क्लेश को बन्ध का कारण मान कर क्लेश का कारण अविद्या को माना है। संसार का मूल कारण अविद्या है। संसार कर्मबन्ध के कारण होता है। अविद्या का अर्थ है-मिथ्याज्ञान।४ वैशेषिक दर्शन ने भी - १. मूढात्मा यत्र विश्वस्तः ततो नान्यद् भयास्पदम् । ___ यतो भीतस्ततो नान्यद्, अभयस्थानमात्मनः ॥ -सर्वार्थसिद्धि २. कर्मसिद्धान्त (जिनेन्द्रवर्णी) से, पृ. ४४ ३. (क) ज्ञानान्मुक्तिः, बन्धो विपर्ययात् । -सांख्यदर्शन अ. ३, सू.२४-२५ . (ख) सांख्यकारिका ४४, ४७, ४८ ४. (क) योगदर्शन २/३१४ (ख) तस्य हेतुरविद्या, तदभावात् संयोग भावो, तदृशेः कैवल्यम् । -योगदर्शन २, २४-२५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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