SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९८ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) गृद्धि, अभिष्वंग, संग आदि का समावेश हो जाता है। यही कारण है कि रागभाव का सहसा उच्छेद होना बहुत ही दुष्कर है। इसलिए प्रत्येक साधक को विवेकपूर्वक प्रशस्त और अप्रशस्त राग का विश्लेषण करके अप्रशस्त राग से बचना चाहिए। प्रशस्त और अप्रशस्त राग : राग के चार प्रकार व्यावहारिक दृष्टि से राग के चार रूप बनते हैं - (१) अशुद्ध राग, (२) अशुभ राग, (३) शुभराग और (४) शुद्ध राग । (१) अशुद्धराग वह है, जिसमें क्रूर, मलिन एवं दोषपूर्ण वृत्तियों के प्रति कषायचतुष्टय की उत्कटतावश आकर्षण होता है। जैसेचोरों डकैतों आदि का धन के प्रति, कामी का लम्पटता के प्रति, आततायियों या आतंकवादियों का सत्ता आदि के प्रति व्यामोह । इसे गंदे नाले का पानी कहा जा सकता है। (२) अशुभराग वह है, जिसमें पत्नी, बालकों आदि परिवार का मन्द मोह, धन का ममत्व तथा अपने शरीर एवं इन्द्रियों के विषयों के प्रति सामान्यतः आकर्षण आदि होता है। इसे कचरा, मिट्टी आदि मिला हुआ अशुद्ध पानी कहा जा सकता है। ये दोनों प्रकार के राग अप्रशस्तराग के अन्तर्गत हैं। (३) शुभराग है- दान, पुण्यकार्य, परोपकार, सेवा, आदि शुभकायों में रुचियुक्त वृत्तियाँ। इसे साफ किया हुआ वाटरवर्क्स का पानी कह सकते हैं। (४) शुद्धराग कहते हैं- प्रभु के प्रति अनन्य समर्पण, गुरुदेव के प्रति अनुरक्ति-भक्ति, धर्म के प्रति अडिग श्रद्धा, रुचि तथा निष्ठा, निष्कामभाव से करुणा, दया, अनुकम्पा, क्षमा, वत्सलता तथा धर्म रक्षा के लिए बलिदान आदि मधुरतापूर्ण निर्मल चित्तवृत्तियाँ। इसे स्वच्छ डिस्टिल्ड वाटर या आकाशीय स्वच्छ जल कहा जा सकता है। शुभराग और शुद्धराग ये दोनों प्रशस्त राग हैं। विशेषावश्यक भाष्य में कहा गया है - वर्तमान काल में सराग संयमी साधुओं ( अथवा संयमासंयमी श्रावकवर्ग) के लिए अरिहंत भगवन्तों के प्रति, आचार्य, उपाध्याय आदि साधु-साध्वी वर्ग के प्रति तथा ब्रह्मचारियों के प्रति जो राग होता है, वह प्रशस्त राग है। राग कभी शुद्ध नहीं होता : एक चिन्तन निश्चय दृष्टिवादी विचारकों का कहना है कि राग कभी शुद्ध नहीं होता, किन्तु यदि प्रभुभक्ति, गुरुसेवा, स्वधर्मीवात्सल्य, धर्मश्रद्धा आदि को शुद्ध राग नहीं मानेंगे तो फिर ये परम्परा से परमात्म प्राप्ति या मुक्ति के साधन कैसे होंगे। श्रद्धालु श्रावकों के लिए आगमों में कहा गया है - 'उनकी हड्डी और मज्जा धर्मप्रेम के रंग में रंगी हुई थी' यह विशेषण कैसे सार्थक होगा ? शुद्धराग को तीर्थंकर गोत्र के बन्ध का कारण (तीर्थंकरत्व-प्राप्ति) का कारण तो माना ही गया है। अतः यह विचारणीय है। फिर भी आध्यात्मिक पूर्णता के लिए राग और द्वेष दोनों का ही सर्वथा त्याग आवश्यक है, तभी कर्मबन्ध से सर्वथा छुटकारा हो सकेगा । ' 9. (क) जिनवाणी सितम्बर १९९० में प्रकाशित 'प्रेम का परमरूप : भक्ति' शीर्षक लेख से पृ. १७ (ख) अरिहंतेसु य रागो, रागो साहुसु बंभयारीसु । एस पत्थो रागो, अज्ज सरागाणं साहूणं ||१७| (ग) अट्ठि- मिंज्ज-पेमाणुरागरत्ते Jain Education International For Personal & Private Use Only - विशेषा. -उपासकदशांग www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy