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________________ कर्मबन्ध के बीज : राग और द्वेष ९७ मिथ्यात्व गुणस्थान तक पहुँच सकती है; क्योंकि उक्त आत्मा ने रागद्वेष (कषाय या मोह) का सर्वथा क्षय नहीं किया है। अतः क्षपकश्रेणी पर चढ़ने के लिए राग और द्वेष का पूर्णतः क्षय करना अनिवार्य है। द्वेष तो छोड़ दिया परन्तु रागभाव को नहीं छोड़ा तो वीतरागता प्राप्त नहीं हो सकती। वीतरागता के बिना मुक्ति भी नहीं प्राप्त हो सकती। इसीलिए जिनेश्वरदेव को 'वीतद्वेष' न कहकर 'वीतराग' कहा गया है-वह रागभाव के त्याग की दुष्करता बताने के लिए ही। इसीलिए भगवान महावीर ने कहा-“राग और द्वेष के सर्वथा सम्यक् प्रकार से क्षय से ही जीव एकान्त सौख्यरूप मोक्ष को प्राप्त करता है।" साम्प्रदायिक कट्टरता : अप्रशस्तरागान्धता का प्रतीक राग का त्याग दुष्कर इसलिए है कि उसके तीव्रता-मन्दता, प्रशस्तता-अप्रशस्तता की दृष्टि से अनेक प्रकार हैं। साधक कोटि का व्यक्ति भी इस भुलावे में रहता है कि मैंने घर-बार, कुटुम्ब-कबीला, तथा सांसारिक उपभोग की चीजें छोड़ दी, इसलिए मैं रागत्यागी हो गया, परन्तु दूसरे प्रकार से मोहनीय कर्मवश जिन वस्तुओं को छोड़ दिया, उन पर भी अन्तर में मोह-ममत्व, सूक्ष्म वासना, कामना, नामना, प्रसिद्धि, आडम्बरप्रियता, प्रशंसा आदि के परिणाम उनके प्रति चलते रहते हैं। कभी-कभी तो वह राग उत्कट हो जाता है। देव (अरिहंत और सिद्ध परमात्मा), निर्ग्रन्थ गुरु और धर्म (रत्नत्रयरूप) के प्रति अनुराग को जैनसिद्धान्तानुसार प्रशस्त राग कहा है, परन्तु वह प्रशस्त राग अज्ञानवश जब अपने सम्प्रदायमान्य अमुक नाम के वीतराग देव के सिवाय अन्य नाम के वीतराग देव को देव मानने वालों के प्रति द्वेषभाव युक्त हो जाता है, तब वह अप्रशस्तराग हो जाता है। इसी प्रकार 'नमो लोए सव्वसाहूणं' कहकर अपने मान्य सम्प्रदाय के सिवाय दूसरे सम्प्रदाय, मत या पंथ के सुसाधुओं को द्वेषवश गुरु न मानना भी अप्रशस्तराग का कारण बन जाता है। यही हाल धर्म का है। शुद्ध धर्म को छोड़कर स्वसम्प्रदाय के प्रति रागान्ध होकर अन्य धर्मसंघ या सम्प्रदायों की निन्दा करना, उनसे द्वेष रखना, उनके अनुयायियों पर झूठा लांछन लगाना, उन्हें बरगलाना, आदि सब साम्प्रदायिक कट्टरताएँ अप्रशस्त राग वश द्वेष के कारण घोर पापकर्म बन्धक हैं। राग के दायरे में कामराग या विषयराग, स्नेहराग एवं दृष्टिराग, ये जो तीन भावराग हैं वे अप्रशस्त राग हैं। इनमें जो दृष्टिराग है, वह साम्प्रदायिक कट्टरता का प्रतीक है। वह साधुजनों के लिए भी अत्यन्त कठिनता से दुरुच्छेद्य है।२ । कामराग, स्नेहराग और दृष्टिराग कामराग के अन्तर्गत (इच्छा, आशा, तृष्णा, लालसा, लिप्सा आदि) इच्छाकाम और मदनकाम (कामवासना, कामभोग लिप्सा आदि) ये दोनों प्रकार के काम आ जाते हैं। इसी प्रकार स्नेहराग के अन्तर्गत आसक्ति, मूर्छा, ममता, अहंता, लोभ, १. (क) सुधर्मा अगस्त १९८९ में प्रकाशित लेख, पृ. ६२ से (ख) रागस्स दोसस्स य संखएणं, एगतसोक्ख समुयेइ मोक्ख ॥ -उत्तराध्ययन ३२/२ २. (क) ज रायवेयणिज्ज, समुइणं भायओ तओ राओ । सो दिद्वि-विसय-नेहाणुरायरूवो अभिस्संगो ॥ -विशेषावश्यक गा. २९६४ (ख) दृष्टिरागो हि पापीयान्, दुरुच्छेदः सतामपि ॥ -हेमचन्द्राचार्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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