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________________ कर्मबन्ध के बीज : राग और द्वेष ८९ राग-द्वेष के कारण हिंसा-परिग्रहादि और दुःख इतना ही नहीं मनोज्ञ शब्द, रूप, गन्ध, रस, स्पर्श और विविध भावों की प्राप्ति की लालसा के वशीभूत होकर व्यक्ति अनेक जीवों को संतप्त और पीड़ित करता रहता है। शब्दादि के उत्पादन, संरक्षण, व्यय और वियोग एवं उपभोग के समय व्यक्ति नाना प्रकार के दुःखों का अनुभव करता है, कर्म बाँधता है और उनके दुःखद फल भोगता रहता है, फिर भी उसे इनसे तृप्ति नहीं होती। अतः फिर वह अतृप्त मानव उनके पुनः पुनः ग्रहण और उपभोग में आसक्त मूर्छित एवं रागाविष्ट होता है। न मिलने पर असन्तुष्ट एवं लोभाविष्ट होकर चोरी करता है, असत्याचरण ठगी एवं दम्भ करता है, अनैतिक आचरण करता है। इस प्रकार असत्याचरण से पहले और पीछे वह व्यक्ति दुःखित, अतृप्त एवं आश्रयहीन हो जाता है। जिस प्रकार मनोज्ञ शब्दादि विषयों में अनुरक्त व्यक्ति उनकी प्राप्ति के लिए दौड़-धूप करने और उनके उपभोग में अतृप्ति के कारण सर्वत्र मानसिक क्लेश और दुःख उठाता है, उसी प्रकार अनमोल शब्दादि विषयों के प्रति द्वेष के कारण भी वह उत्तरोत्तर दुःख परम्परा को बढ़ाता है। राग-द्वेष युक्त चित्त से अनेक कर्मों का बन्ध और संचय कर लेता है। जो बाद में फलभोग के समय दुःख के कारण बनते हैं। अतः शब्दादि विषयों और नानाविध भावों से विरक्त मनुष्य ही दुःख-शोक से रहित होता है। वह संसार में रहता हुआ भी दुःख समूह की परम्परा से उसी प्रकार लिप्त नहीं होता, जिस प्रकार कमलिनी का पत्ता जल से लिप्त नहीं होता। - कामभोगों का सेवन : राग-द्वेष-मोह का उत्तेजक शत्रु वस्तुतः कामभोगों को अपनाते ही राग, द्वेष और मोह अवश्य ही आ धमकते हैं। ये तीनों ही मनुष्य के अन्तःप्रविष्ट शत्रु हैं। यहाँ इह-लोक में तो इनसे पूर्वोक्त नाना प्रकार के शारीरिक और मानसिक दुःख होते हैं, इनके कारण अशुभकर्मों का बन्ध होने से नरकादि दुर्गतियों में जन्म-मरण-परम्परा का दीर्घकालीन दुःख भोगना पड़ता है। इसी कारण राग और द्वेष और इनके प्रेरणास्रोत मोह आत्मा के शत्रु कहे गये हैं। बाह्य शत्रु तो अवसर देखकर दाँव लगने पर ही प्रहार करते हैं, तथा समय आने पर उनका प्रतीकार भी किया जा सकता है। किन्तु रागद्वेषादि तो 'विषकुम्भं पयोमुखम्' की भांति मित्रमुख शत्रु हैं। ये प्राणी का इतना अनिष्ट करते हैं, जितना बाह्य शत्रु भी नहीं करता। इसीलिए वीतराग परमात्मा ने साधकों को सावधान करते हुए कहा है"यदि हम सावधान रहें तो समर्थ होते हुए भी बाह्य शत्रु हमारा उतना अहित नहीं १. (क) देखें, उत्तराध्ययन सूत्र अ.३२, गा. २१ से ९९ तक का भावार्थ ___ (आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर) पृ. ५७९ से ५९३ (ख) यस्मिन्निन्द्रिय-विषये शुभमशुभ या निवेशयति भावम् । रक्तो वा दिष्ठो वा स, बन्ध हेतुर्भवति तस्य ॥ -प्रशमरति ५/४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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