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८८ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) अपने स्वभाव या शुद्धस्वरूप के विपरीत मोहवश इष्ट-अनिष्ट विषयों में हर्ष-विषादरूप परिणाम लाता है, तब चारित्र-मोह नामक राग-द्वेष उत्पन्न होता है। पाँचों इन्द्रियों और मन के विषयों के प्रति राग-द्वेष कैसे और कब ? .
पाँचों इन्द्रियों और मन में राग-द्वेष कब और कैसे जन्म लेता है ? उनका क्या परिणाम आता है ? इस विषय में उत्तराध्ययन सूत्र में विस्तार से वर्णन किया गया है। संक्षेप में इस प्रकार है-चक्ष रूप का ग्राहक है, तथा चक्ष का ग्राह्य विषय रूप है; श्रोत्र (कर्ण) शब्द का ग्राहक है तथा शब्द श्रोत्र का ग्राह्य विषय है; घ्राण (नासिका) गन्ध का ग्राहक है, तथा घ्राण का ग्राह्य विषय गन्ध है। जिह्वा रस की ग्राहक है तथा जिह्वा का ग्राह्य विषय रस है; काया स्पर्श की ग्राहक है, तथा काया का. ग्राह्य विषय स्पर्श है; एवं मन भाव का ग्राहक है, मन के ग्राह्य विषय विविध भाव (विचार या चिन्तन) हैं। जो साधक राग-द्वेष को उखाड़कर समाधिस्थ होना चाहता है, उसे इन पाँचों इन्द्रियों और मन के मनोज्ञ विषयों के प्रति रागभाव और अमनोज्ञ विषयों के प्रति द्वेष (घृणा) भाव का त्याग करना चाहिये।
फलितार्थ यह है कि पाँचों इन्द्रियों के विषयों तथा मन के भावों के प्रति राग का कारण मनोज्ञ रूपादि और द्वेष का कारण अमनोज्ञ रूपादि कहलाता है। जो प्राणी मनोज्ञ रूपों, शब्दों, गन्धों, रसों, स्पर्शों तथा भावों के प्रति तीव्र राग (आसक्ति या गृद्धि) रखता है, वह अकाल में ही विनाश को प्राप्त हो जाता है; तथैव जो अमनोझ रूप-शब्दादि विषयों तथा भावों के प्रति द्वेष करता है, वह भी अपने दुर्दान्त द्वेष के कारण तत्क्षण विनाश को प्राप्त होता है। इन विषयों तथा भावों के प्रति राग और द्वेष करने में उन रूपादि विषयों का अपना कोई दोष नहीं है। साथ ही यह भी समझ लेना चाहिये कि जो प्राणी रमणीय रुचिर रूप, शब्द, गन्धादि के प्रति तीव्र रूप से रक्त (आसक्त) होता है, तथा अरम्य, अरुचिकर रूपादि के प्रति प्रद्वेष करता है, वह अज्ञानी प्राणी नाना दुःखों को प्राप्त होता है। इसीलिए वीतराग (राग-द्वेष से सर्वय रहित) मुनि रूप-रसादि विषयों में लिप्त नहीं होता। उदाहरणार्थ-प्रकाश के रूप में लोलुप पतंगा, शब्द (गायन) में अतृप्त-मुग्ध हरिण, नागदमनी आदि औषधियों की गंध में आसक्त सर्प, मांस खाने में आसक्त कांटे में लगी आटे की गोली पर मुँह मारने वाला मत्स्य, जलाशय के शीतल जल के स्पर्श में आसक्त मगरमच्छ का शिकार भैंसा, हथिनी के प्रति आकृष्ट कामगुणों में आसक्त हाथी आदि भोले-भाले अदूरदर्श अज्ञजीव रागातुर होकर विनाश को प्राप्त होते हैं।
१. (क) छिंदाहि दोस, विणएज्ज राग, एवं सुही होहिसि संपराए। -दशवैकालिक २/५
(ख) सुधर्मा, अगस्त १९८९ के अंक में प्रकाशित लेख से भावांशग्रहण। (ग) निर्विकार-शुद्धात्मनो विपरीतमिष्टामिष्टेन्द्रिय-विषयेषु हर्ष विषादकर चारित्र-मोहसम्म राग-द्वेषम् ।
-प्रवचनसार ता. वृ. ८३/१८९/१0
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