SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मबन्ध के बीज : राग और द्वेष २७ पदार्थ के प्रति आकर्षित करता है, कभी उसी पदार्थ के प्रति विकर्षित-घृणाभावयुक्त बना देता है। राग-द्वेष की तरतमता से ही मन्द से लेकर तीव्रतम रसबन्ध होता है।' मोहरूपी बीज से राग-द्वेष की उत्पत्ति यही कारण है कि 'आत्मानुशासन' में मोह का चमत्कार बताते हुए स्पष्ट कहा गया है-"जिस प्रकार बीज से जड़ और अंकुर उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार मोहरूपी बीज से राग और द्वेष उत्पन्न होते हैं। अतः जो इन दोनों (राग और द्वेष) को जलाना चाहता है, उसे ज्ञानरूप अग्नि द्वारा मोहरूपी बीज को जला देना चाहिए।"२ राग और द्वेष : दोनों ही आत्मा के लिए बेड़ियाँ राग और द्वेष दोनों ही बेडियाँ हैं। द्वेष लोहे की बेडी है तो राग सोने की बेडी है। दोनों ही बेड़ियाँ हैं जो मनुष्य को कर्म के बन्धन में जकड़ कर पराधीन (कर्माधीन) बना देती हैं। जिस प्रकार कुलीन और सज्जन मनुष्य को लोहे की बेड़ी पहना दी जाए, चाहे सोने की, दोनो ही अवस्थाओं में वह स्वयं को अपमानित महसूस करता है, वह प्रसन्न नहीं होता, ठीक उसी प्रकार आत्मार्थी एवं मुमुक्षु मानव राग और द्वेष को बेड़ियाँ मानकर आत्मा को इनके बन्धन से यथाशीघ्र मुक्त करना चाहता है। वह रागद्वेष के प्रभाव से आत्मा को बन्धनग्रस्त मान कर दीनता-हीनता एवं पराधीनता से छुटकारा दिलाने का प्रयत्न करता है। इस प्रकार वह अपने संसार-परिभ्रमण को सीमित कर देता है।३ आत्मार्थी साधकों को इसीलिए परमकृपालु तीर्थकर प्रभु ने स्पष्ट परामर्श दिया है-“इस जन्ममरणादि दुःख बहुल संसार में सुखी (अव्याबाध आत्मसुख से युक्त) तभी होओगे, जब तुम द्वेषभाव को छिन्न-भिन्न कर दोगे और रागभाव को त्याग दोगे।" एक आचार्य ने राग-द्वेष को संसाररूपी महावृक्ष के मूल बताते हुए कहा है-संसार एक महावृक्ष है। राग और द्वेष उसकी जड़ें हैं। आठ कर्मदल उसकी शाखाएँ हैं। - किम्पाकफल के समान आपातरमणीय एवं मधुररस से युक्त होने से इन दोनों का परिणाम अतिभयंकर जन्म-मरणादि दुःख रूप है। जो अतीव कटु है। किन्तु मोहकर्मवश इन दोनों के स्वाद की मधुरता और रंग की रमणीयता के कारण आत्मा अपने स्वरूप का भान भूलकर अपने आपको इनके बन्धन में फँसाता है, इन दोनों के रस का लोलुप बनकर अपनी संसारबन्धन की सीमा को बढ़ाता है। इसीलिए राग-द्वेष का स्वरूप बताते हुए प्रवचनसार वृत्ति में कहा गया है-"निर्विकार शुद्ध आत्मा जब १. (क) 'सुधर्मा' अगस्त १९८९ में प्रकाशित-“राग और द्वेष : कर्म के बीज" लेख से उद्धृत । (ख) वही, 'राग और द्वेष कर्म के बीज' लेख से भावांशग्रहण । २. मोह-बीजात् रति-द्वेषौ, बीजान्मूलांकुराविव । तस्माज्ज्ञानाग्निना दाा, तदेतौ निर्दिधिक्षुणा ॥ -आत्मानुशासन १८२ ३. सुधर्मा, अगस्त १९८४ में प्रकाशित-“राग और द्वेष : कर्म के बीज' लेख से भावांशग्रहण | . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy