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५६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) नहीं चिपकतीं, क्योंकि कर्म की सत्ता के साथ भी बन्ध नहीं होता, और न ही उसके उदय के साथ बन्ध होता है। बीच में रागयुक्त या द्वेषयुक्त परिणाम (उपयोग) मिलता है, उसके साथ ही बन्ध-प्रक्रिया शुरू हो जाती है। इसका निष्कर्ष यह हुआ कि यदि व्यक्ति किसी भी वस्तु, व्यक्ति या इन्द्रियविषय अथवा भाव पर राग-द्वेष करेगा, तो कर्मवर्गणाएँ आए और चिपके बिना नहीं रहेंगी। किन्तु यदि वह रागद्वेष नहीं करता है, तटस्थ और ज्ञाता-द्रष्टा रहता है तो वह कहीं भी रहे, भले ही कर्मवर्गणाएँ उसके आसपास रहें, मगर चिपकेंगी नहीं। जैसे-हल्दी और चूना अलग-अलग पड़ा रहे तब तक उन दोनों का लाल रंग नहीं होता, दोनों के मिश्रित होते ही लाल रंग होता है। इसी प्रकार कर्मों के साथ राग-द्वेष का मिश्रण नहीं होगा, तब तक बन्ध या संश्लेष नहीं होता, प्रवृत्त्यात्मक कर्म के साथ रागद्वेष का मिश्रण होते ही बन्ध होने लगता
_अब प्रश्न यह होता है कि ये राग और द्वेष क्या हैं ? इनका असली रूप और स्वरूप क्या है ? इसे समझ लेने पर ही रागद्वेष से बचा जा सकता है। .. राग-द्वेष का लक्षण और विश्लेषण
पंचास्तिकाय वृत्ति में राग-द्वेष का लक्षण इस प्रकार किया गया है-"विचित्र चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से उसके रसविपाक के कारण इष्ट-अनिष्ट पदार्थों में जो प्रीति-अप्रीति रूप परिणाम होता है, उसका नाम क्रमशः राग और द्वेष है।२ राग और द्वेष : दोनों ही पापकर्म प्रवर्तक
इसीलिए उत्तराध्ययन में स्पष्ट कहा है-३ 'रागे दोसे य दो पावे, पावकम्मपवत्तणे' राग और द्वेष ये दोनों अपने आप में पाप हैं और पापकर्म के प्रवर्तक है। प्रत्येक प्राणी इन दोनों के कारण ही अनिष्टकारी प्रवृत्तियों में प्रवृत्त होता है। मोहकर्मवश रागादि भावों के चक्कर में पड़ कर किसी भी सजीव निर्जीव पदार्थ
को इष्टानिष्ट मान सकता है
आत्मा अपने आप में निर्विकार है, शुद्ध है, राग-द्वेष आदि विकार उसके स्वभाव नहीं हैं, किन्तु मोहनीय कर्मवश वह अपने स्वभाव को भूल कर रागादि विभावों के चक्कर में पड़ कर किसी पदार्थ को एक बार इष्ट, प्रिय और मनोज्ञ मान लेता है। उसी पदार्थ को फिर किसी समय द्वेषवश अनिष्ट, अप्रिय और अमनोज्ञ मान का ठुकरा देता है। यह सब मोहनीय कर्म की लीला है। मोहनीय कर्म सभी कर्मों का राज है। यही राग और द्वेष का बुद्धि और हृदय पर रंग (परिणाम) चढ़ाकर कभी एक १. विद्यासागर (मासिक) में प्रकाशित आ. विद्यासागर जी म. के एक प्रवचन से, पृ. ९ २. विचित्र-चारित्रमोहनीय-विपाकप्रत्यये प्रीत्यप्रीती रागद्वेषै। -पंचास्तिकाय त. प्र. १३१ ३. उत्तराध्ययन सूत्र अ. ३१
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