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________________ कर्मबन्ध के बीज : राग और द्वेष ५५ प्रायः दृष्टिकोण बदलते देर न लगेगी। प्रायः लोग उसे जल्दी हटाने या मिटाने का सोचने लगते हैं। उसे अधिक देर रखना असह्य हो जाएगा। शीघ्र से शीघ्र उसकी अन्त्येष्टि क्रिया करना ही श्रेयर समझते हैं। जो व्यक्ति जीवित रहते कमाऊ, हितैषी एवं प्रिय समझा जाता था, वही व्यक्ति किसी संक्रामक, दुःसाध्य एवं दीर्घकालिक रोग से पीड़ित हो जाए तो घृणास्पद एवं अरुचिकर लगने लगता है। दामाद बहुत ही प्रिय लगता है। वह घर आता है तो उसके स्वागत-सत्कार का सभी लोग पूरा ध्यान रखते हैं। परन्तु यदि पुत्री के साथ उसकी अनबन हो जाए या वह उसे तिरस्कृत-बहिष्कृत कर दे, तलाक हो जाए तो फिर वही दामाद उपेक्षापात्र एवं अपरिचित-सा लगता है। उसके मिलने पर तनिक भी प्रसन्नता नहीं होती। यद्यपि व्यक्ति वही है, उसके गुण-दोष ज्यों के त्यों हैं। परन्तु जब वह सम्बन्धी या अपना था, तब प्रिय था, जब उसके प्रति अपनापन हट गया तो वह उपेक्षणीय समझा जाने लगा। रागवश अपना प्रिय पुत्र कुरूप और उद्दण्ड हो तो भी प्रिय लगता है और पड़ोसी का सुन्दर विनयी लड़का हो तो भी वह उपेक्षणीय लगता है। अतः अपनापन ही प्रिय लगता है। यही राग-द्वेष का प्रभाव है। योगीन्ददेव ने स्पष्ट कहा है-मोह से जिसे इष्ट समझ लिया जाता है, वही (कालान्तर में) अनिष्ट हो जाता है और जिसे अनिष्ट समझ लिया जाता है वही इष्ट हो जाता है। क्योंकि निश्चयनय से संसार में कोई भी पदार्थ न तो इष्ट है और न अनिष्टा२ राग द्वेष : चरणसंलग्न कण्टक राग और द्वेष पैरों में लगे हुए काँटे हैं, जो सदैव साथ रहकर, मित्र-से बन कर, चरणों में लग कर भी मनुष्य को पीड़ा पहुंचाते हैं, दुःखी कर देते हैं। प्रवृत्त्यात्मक कर्म के साथ राग द्वेष का मिश्रण होते ही बंध जीव जब भी राग-द्वेष करता है, तभी वह कर्म के बन्धन में जकड़ जाता है। एक व्यक्ति यहाँ बैठा है तो उसका चित्र और उसकी वाणी टेलीविजन में दूर-सुदूर अमेरिका तक पहुँच जाती है। कितनी आकर्षण शक्ति है टेलीविजन में ? इससे भी अधिक आकर्षण शक्ति राग-द्वेष के कैमरे में है। राग-द्वेष के कैमरे के माध्यम से : विश्व में व्याप्त कर्मवर्गणाओं में से जिनको चाहता है, वे सारी की सारी कर्मवर्गणाएँ आकर एक समय में उसके पास पहुँच जाती हैं। एक आत्म प्रदेश पर अनन्तानन्त पुद्गलवर्गणाएँ कर्म के रूप में एक समय में चिपक जाती हैं। राग या द्वेष का करेंट लगा कि कर्मवर्गणाएँ आकर चिपकीं। इसका फलितार्थ यह हुआ कि जो रागद्वेष करता है, उसकी आत्मा के कर्मवर्गणाएँ चिपकती हैं। केवल कर्मों के साथ कर्मवर्गणाएँ १. अखण्ड ज्योति, अगस्त ७८ में प्रकाशित-'आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता' लेख से, पृ. ११ · २. इष्टोऽपि मोहतोऽनिष्टो, भावोऽनिष्टस्तथा परः । न द्रव्यं तत्वतः किंचिदिष्टानिष्टं हि विद्यते ॥ -योगसार अ. ५/३६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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