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________________ कर्मबन्ध का मूल स्रोत : अध्यवसाय ७३ नहीं बदलते होते तो जीवों की उन्नति-अवनति का अनुभव ही न होता, तथा कर्मों की स्थिति की विचित्रता भी न दिखाई देती। (२) आत्मा शुभ (प्रशस्त) अध्यवसाय से, अशुभ (अप्रशस्त) अध्यवसाय में और अशुभ अध्यवसाय से शुभ अध्यवसाय में छलांग लगाया करता है। इसका अनुभव भी आप सब करते ही होंगे। धर्मस्थान में बैठे होते हैं, तब आप प्रायः अभिमान, छल-कपट, क्रोध या लोभ नहीं करते, किन्तु यहाँ से बाहर जाने के बाद थोड़ा-सा अनिष्ट संयोग या प्रतिकूल निमित्त मिलते ही आपका अध्यवसाय बदल जाएगा। मार्ग में चलते समय कोई व्यक्ति आपको जरा-सा छेड़ दे या अपशब्द कह दे तो तुरंत ही बौखला उठेंगे, आपके अहंकार और क्रोध का पारा चढ़ जाएगा, आप मन ही मन तिलमिला उठेंगे, एवं अशुभ अध्यवसायों में बहकर उसे अपशब्द कहने लगेंगे और लड़ने को भी तैयार हो जाएँगे। कई बार व्यक्ति के मन में शुभ अध्यवसाय आते हैं, किन्तु वे प्रायः अधिक देर टिकते नहीं। प्रवचनसार में कहा गया है कि "यह वीतराग परमात्मा का उपदेश है कि जिस-जिस भाव से जीव विषयागत पदार्थ को देखता है, जानता है, उसी भाव (अध्यवसाय) के कारण वह (रागादि) विकारभाव को प्राप्त होता है, उसी से उसके शुभ-अशुभ कर्मबन्ध होता है।"१ निष्कर्ष यह है कि आत्मा शुभ अध्यवसाय से अशुभ अध्यवसाय में चला जाता है, उसी प्रकार वह अशुभ अध्यवसाय से शुभ अध्यवसाय में भी जा सकता है। प्रतिक्रमण, उपवास, आलोचना, प्रत्याख्यान, व्रतपालन आदि शुभ आचरण हैं, किन्तु इन्हें भी अशुभ परिणामों से किया जाए तो ये भी अशुभ कर्मबन्ध के कारण बन जाते हैं। इसके विपरीत साधक का चलना, उठना, बैठना, खाना-पीना, सोना आदि क्रियाएँ यद्यपि सूक्ष्महिंसा की कारण हैं, इससे अशुभ (पाप) कर्म का बन्ध होना चाहिए, परन्तु यदि ये ही क्रियाएँ यतनापूर्वक शुभ अध्यवसाय से की जाएँ तो ये ही पुण्यकर्मबन्ध की कारण हो जाएँगी। अज्ञानादि अध्यवसाय अशुभ (रागादिरूप) होने से अशुभ कर्मबन्ध का कारण बन जाता है। वस्तुतः वस्तु या कोई भी क्रिया . अपने आप में बन्ध का कारण नहीं, बन्ध का कारण है-जीव का रागादि भाव। ___ एक मनुष्य क्रोधान्ध होकर अशुभ अध्यवसायों के प्रवाह में बहता चला जा रहा है, किन्तु रास्ते में ही उसे कोई प्रभावशाली साधु या सज्जन मिल गया, उसने उसे हितकारक शब्द कहे, वे उसके हृदय को छू गए, उसका क्रोध शान्त हो गया, अध्यवसाय भी शुभ हो गया। (३) तीसरा निष्कर्ष है-अध्यवसायों के बदलने में निमित्त भी काम करते हैं, प्रायः अशुभ निमित्त से अशुभ अध्यवसाय और शुभ निमित्त से शुभ अध्यवसाय हो जाते हैं। १. भावेण जेण जीवो पेच्छदि, जाणदि आगदं विसये । रज्जदि तेणेव पुणो, बज्झदि कम्म त्ति उवदेसो । -प्रवचनसार गा. १७६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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