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________________ ७४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) ___ कोई व्यक्ति अहंकारवश दूसरे को तुच्छ मानकर उसका तिरस्कार करना चाहता. है, इतने में ध्यानस्थ बाहुबली मुनि का चित्र उसके मानसपटल पर आ जाए तो अध्यवसाय बदल जाता है। उसके मन में ऐसा अध्यवसाय खड़ा हो जाता है-"रे जीव! बाहुबली मुनि सर्वस्व त्याग करके बारह महीने तक अडोल ध्यान में खड़े रहे, लेकिन अभिमान का तनिक-सा अंश उनके मन में रह जाने के कारण केवलज्ञान प्राप्त न कर सके। जब ब्राह्मी और सुन्दरी साध्वी-बहनों ने बाहुबली मुनि का ध्यान इस ओर खींचा तो तुरंत ही वे संभले और अभिमान छोड़कर भगवान् ऋषभदेव के पास जाने के लिए कदम उठाया कि अध्यवसाय के परमशुद्ध होते ही केवलज्ञान प्राप्त हो गया। परन्तु तू तो अभिमान में गले तक डूब रहा है, तेरी क्या गति-मति होगी?" . जिस प्रकार इस प्रबल निमित्त के मिलते ही अशुभ अध्यवसाय शुभ में परिणत हो गया, वैसे ही सद्गुरु-समागम, धर्म-श्रवण, पर्युषणादि पर्व, उपाश्रय, धर्मस्थान, स्वाध्याय आदि अध्यवसायों को शुभ तथा शुद्ध करने के प्रबल निमित्त हैं। शुभ निमित्त निर्बल होते हैं तो अशुभ अध्यवसाय मनुष्य के मन पर शीघ्र ही हावी होकर उसके जीवन की बाजी बिगाड़ डालते हैं। शुभ या शुद्ध भावों से शून्य क्रिया सुफलवती नहीं होती कोई भी क्रिया हो, यदि उसके पीछे शुभ या शुद्ध भाव न हों तो वह क्रिया सुफलवती नहीं होती। चाहे वह दान की क्रिया हो, शीलपालन की क्रिया हो, तपश्चरण की क्रिया हो, शुभ या शुद्ध भाव से शून्य क्रिया उस-उस फल की प्राप्ति नहीं करा सकती। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर कहते हैं-“हे जन-बान्धव प्रभो ! मैंने आपके वचन भी सुने, आपकी अर्चना-पूजा भी की, आपका (आपकी प्रतिमा का) इन नेत्रों से निरीक्षण भी किया, किन्तु मैंने अपने हृदय में भक्तिपूर्वक आपको धारण नहीं किया। इसीलिए मैं दुःख का भाजन बना, क्योंकि भावशून्य क्रियाएँ कभी प्रतिफलित नहीं होती।"२ साधुजीवन में अशुभ और सर्पजीवन में शुभ अध्यवसाय का फल तात्पर्य यह है कि चाहे साधुवेष पहना हो, साधुजीवन की क्रियाएँ भी करता हो, परन्तु यदि अध्यवसाय शुभ या शुद्ध नहीं हैं तो उससे हानि भी हो सकती है। चण्डकौशिक सर्प के पूर्वभव का जीव साधुवेष में था, साधु जीवन की सब क्रियाएँ करता था, परन्तु शिष्य के द्वारा बार-बार टोकने के कारण वह उत्तेजित हो गया, १. आत्मतत्वविचार से भावांशग्रहण पृ. ३४८ २. आकर्णितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि, नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या । जातोऽस्मि तेन जनबान्धव ! दुःखपात्र, यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्या- ॥" -कल्याणमन्दिर स्तोत्र, काव्य ३८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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