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________________ ७२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) हैं, और कभी आत्मभावों या आत्मगुणों में स्थित होने का शुद्ध अध्यवसाय आ जाए तो कर्म-निर्जरा (कर्म का आंशिक क्षय) भी हो सकती है। किन्तु क्रोधादि के निमित्त मिलते ही आप क्रोध, लोभ, अभिमान आदि कर बैठे तो अशुभबन्ध होते देर नहीं लगती। बिजली का यदि कोई व्यक्ति ठीक से उपयोग करता है, तो वह उससे प्रकाश, ताप आदि का लाभ प्राप्त कर लेता है, परन्तु बिजली को सीधा ही छूने लगता है, य उससे छेड़छाड़ करता है तो तुरंत करेंट मारकर वह उसके प्राण ले सकती है। इस प्रकार अध्यवसाय को शुभ रखने से व्यक्ति पुण्यबन्ध करके लौकिक लाभ प्राप्त कर लेता है, परन्तु ज्यों ही वह अशुभ अध्यवसाय के प्रवाह में बहा कि उसक आत्मविकास रुक जाएगा। फलतः उसे पाप कर्म का बन्ध होकर उसका कटुफल भोगना पड़ सकता है। बाहुबली मुनि के अभिमान का अध्यवसाय केवलज्ञान में बाधक था। ___ बाहुबली मुनि सर्वस्व त्याग कर अडोल ध्यान में बारह महीने तक खड़े रहे किन्तु उनके मन में अभिमान का अध्यवसाय डेरा डाले पड़ा रहा कि मैं भगवान ऋषभदेव के पास जाऊंगा तो वहाँ अपने छोटे भाइयों को मुझे वन्दन करना पड़ेगा जो मुझ से पहले श्रमणधर्म में दीक्षित हुए हैं। किन्तु भगवान् ऋषभदेव ने साध्वी ब्राह्म और सुन्दरी को उन्हें प्रतिबुद्ध (जागृत) करने के लिए भेजा और उन्होंने बाहुबल मुनि को अभिमान छोड़ने के लिए समझाया तो तुरन्त उन्होंने अभिमान का अशुभ अध्यवसाय छोड़ा और शुद्ध अध्यवसाय पूर्वक भगवान् ऋषभदेव के पास जाने के लिए कदम बढ़ाया कि उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया। यदि बाहुबली मुनि में प्रशस्त राग का अध्यवसाय भी होता तो उसके फल-स्वरू उन्हें पुण्यबन्ध होता, परन्तु बन्ध-मुक्ति न होती। जैसे-गौतम स्वामी की इतनी उच्च साधना होने पर भी उनके मन में भगवान महावीर के प्रति प्रशस्त राग (भक्तिराग का अध्यवसाय जब तक रहा, तब तक उन्हें भी केवलज्ञान प्राप्त नहीं हो सक जबकि उनके द्वारा दीक्षित शिष्य उनसे पहले ही केवलज्ञान प्राप्त करके सर्वर सिद्ध-बुद्ध एवं कर्म-मुक्त हो गए थे। अध्यवसाय-सम्बन्धित तीन निष्कर्ष अतः पूर्वोक्त कथन पर से तीन निष्कर्ष फलित होते हैं (१) आत्मा का अध्यवसाय सदा एक-सा नहीं रहता, वह बदलता रहता है। पुराने अध्यवसायों की जगह नये नये अध्यवसाय पैदा होते रहते हैं। यही कारण है कि प्रज्ञापनासूत्र में संसारस्थ सभी जीवों के असंख्यात अध्यवसाय बताए गए हैं। आकाश के तारों और पृथ्वी के रजकणों की तरह अध्यवसायों की गिनती भी नहीं हो सकती। इसीलिए उनके भेद और स्थान असंख्यात माने गए हैं। यदि अध्यवसाय १. आत्मतत्व विचार से भावशिग्रहण, पृ. ३४८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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