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________________ कर्मबन्ध का मूल स्रोत : अध्यवसाय ६५ चतुर्थ भंग-'न द्रव्य से हिंसा और न भाव से हिंसा'। यह भंग शून्य है, केवल शब्दों से उल्लेख कर दिया गया है, क्योंकि इस भंग (विकल्प) में हिंसा की क्रिया न तो द्रव्यात्मक होती है और न ही भावात्मक। हिंसा के मूल में दो ही रूप हैं, द्रव्यात्मक और भावात्मक। तीसरा भंग दोनों के मिलन का है, अतः द्रव्य से तथा भावतः हिंसा से (द्वितीय भंग से) कर्मबन्ध होता है। चतुर्थ भंग दोनों के निषेधरूप में है। अतः हिंसा का इसमें कोई रूप ही नहीं बनता।' असत्य-सत्य सम्बन्धित चतुर्भगी भी इसी प्रकार है। प्रथम भंग-द्रव्य से मृषावाद, भाव से नहीं। जैसे कोई व्यक्ति वन-प्रदेश में स्थित मुनि से पूछता है-“इधर से मृग आदि पशु गये हैं क्या?" मुनि ने मृगादि जाते हुए देखे हैं, फिर भी प्राणिरक्षारूप दया के भाव से कहता है-“नहीं, मैंने नहीं देखे।" यह द्रव्यरूप से शाब्दिक मृषावाद-असत्य है, किन्तु भाव से नहीं है। कारण यह है कि मुनि अपने किसी स्वार्थ, लोभ, क्रोध, हास्य या भय आदि की दृष्टि से असत्य के लिये असत्य नहीं कह रहा है, परन्तु 'सद्भ्यो हितं, सत्यम्'२ –'प्राणिमात्र का जिससे हित हो, वह सत्य है,' इस परिभाषा के अनुसार शिकारी और मृगादि प्राणी दोनों के हित एवं रक्षण की दृष्टि से यह वचन द्रव्यतः असत्य होते हुए भी भावतः सत्य है। भावतः असत्य न होने से यह वाक्य बाह्य असत्य होते हुए भी अन्तरंग से सत्य की कोटि में आता है। अतः भावों (परिणामों) में असत्य न होने से यह कर्मबन्ध कारक नहीं है। इससे मुनि का सत्यमहाव्रत खण्डित नहीं होता। वस्तुतः बन्ध और मोक्ष व्यक्ति के अध्यवसाय, परिणाम या भाव की धारा पर ही निर्भर हैं। आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में इसी सन्दर्भ में प्रतिपादित भगवद्वाक्य-'जाणं वा णो जाणंति वएज्जा'-(प्राणिदया के हेतु मंगादि को किस दिशा में गए हैं, यह) जानता हुआ भी मुनि (उपेक्षा भाव) कह दे कि-"मैं नहीं जानता, मझे नहीं मालूम, मैंने नहीं देखे"। इसी तथ्य का स्पष्ट भावबोध है, जो आगमज्ञ चूर्णिकार एवं वृत्तिकार आचार्यों के शब्दों में अभिव्यक्त हुआ है। द्वितीय भंग-असत्य बोलने का भाव होते हुए भी सहसा मुख से सत्य बोलना। जैसे किसी व्यक्ति ने अपने स्वार्थ एवं लोभ की पूर्तिवश, दूसरे को धोखा देने का विचार किया, किन्तु सहसा उसके मुख से सत्य बोला गया। ऐसी स्थिति में-भाव से असत्य है, द्रव्य से नहीं। मन में असत्य बोलने का भाव (अध्यवसाय) आते ही भले ही द्रव्य (बाह्य) से सत्य बोला गया हो, परन्तु वह है असत्य ही; इससे कर्मबन्ध का होना सुनिश्चित है। तृतीय भंग-असत्य बोलने का भाव भी हो, और असत्य बोला भी जाय; यह द्रव्य और भाव से मिश्रित असत्य का तृतीय भंग है। इसमें व्यक्ति पहले ही असत्य १. चरमभंगस्तु शून्यः । २. उत्तराध्ययन पाइटीका अ. ६ में निरूपित । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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