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________________ ६४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) प्रथम भंग में- द्रव्य से हिंसा है, भाव से नहीं। किसी कारणवश ईर्यादि समिति से गमनागमन करते हुए मुनि के द्वारा भी कदाचित् हिंसा हो जाती है, वह स्थूलद्रव्यरूप से बाह्य द्रव्य हिंसा तो है, परन्तु मुनि के अन्तरंग भाव (अध्यवसाय) में हिंसा नहीं है, हिंसा करने के कोई परिणाम (भाव) नहीं हैं। अतः यह द्रव्यहिंसा कर्मबन्ध की हेतु नहीं है। जैसा कि ओघनियुक्ति आदि में कहा गया है- "ईर्यासमितिपूर्वक गमन करते हुए मुनि के पैर के नीचे भी कभी क्षुद्र प्राणी (कीट आदि) दब कर मर जाते हैं, उनकी हिंसा हो जाती है ( की नहीं जाती), परन्तु उक्त द्रव्यहिंसा से उस मुनि को सिद्धान्त में सूक्ष्ममात्र भी कर्मबन्ध नहीं बताया है। क्योंकि मुनि अप्रमत्त है, जागृत है अन्तर् में। और हिंसा तो सैद्धान्तिक दृष्टि से प्रमत्त- योग से प्राणियों का प्राण-नाश करने पर ही निर्दिष्ट है। दूसरा भंग - भाव से हिंसा है, द्रव्य से नहीं है। जैसे - कोई व्यक्ति कुछ अधिक मंद प्रकाश वाले प्रदेश (स्थान) में टेढ़ी मेढ़ी एवं आड़ी तिरछी पड़ी हुई रस्सी को भ्रान्तिवश सर्प समझकर, 'यह सर्प है' इसे मार डालना चाहिए, इस परिणाम (अध्यवसाय या भाव) से सहसा म्यान से तलवार निकाल कर उसके दो टुकड़े ( खण्ड) कर डालता है। वहाँ स्पष्ट है कि सर्परूप प्राणी की हिंसा तो नहीं हुई है, मगर सर्प को मारने का अध्यवसाय (परिणाम) होने से वह भावहिंसा हो गई। अतः प्रस्तुत भंग में प्राणातिपातरूप हिंसा का दोष होने से कर्मबन्ध होता है । ' तीसरा भंग - जहाँ द्रव्य से भी हिंसा हो, और भाव से भी । द्रव्य और भाव दोनों प्रकार से हिंसा होने की स्थिति संकल्पवूक किसी प्राणी की हिंसा कर देने से होती है। जैसे- कोई शिकारी मृग को मारने के भाव (अध्यवसाय ) से कान तक धनुष की प्रत्यंचा को जोर से खींच कर लक्ष्य सन्धान पूर्वक बाण छोड़ता है, उस बाण से मृग को बध डालता है और वह भृग मर भी जाता है। यहाँ मृग को वध करने के भाव से मृग को मारा गया है, अतः यह द्रव्यहिंसा भी है, और भावहिंसा भी । यह उभयमुखी हिंसा कर्मबन्ध की हेतु है, क्योंकि इसमें द्रव्य हिंसा के साथ हिंसा का परिणाम (अध्यवसाय) भी स्पष्टतः परिलक्षित होता है । २ १. (क) द्रव्यतो न भावतः । सा खलु ईर्यादिसमितस्य साधोः कारणे गच्छतः इति । उक्तञ्च उच्चालियंमि पाए, इरियासमियस्स संकमट्ठाए । वावज्जेज्ज कुलिंगी, मरिज्ज तं जोगमासज्ज ॥१॥ न य तस्स तन्निमित्तो बंधो सुहुमो वि देसिओ समए । जम्हा सो अप्पमत्तो सा उ पमायओ त्ति निदिट्ठा ॥ (ख) या पुनर्भावतो न द्रव्यतः । सेयम्-जहा के वि पुरिसे मंद-मंदप्पगासप्पदे से संठियईसिवलियकायं रज्जू पासित्ता । एस आहित्ति तव्वह- परिणामए जिकड्ढियासिपत्ते दुअ दुअं छिंदिज्जा । एसा भावओ हिंसा, न दव्वओ । - ओघनियुक्ति ७४८-४९ २. द्रव्यतो भावतश्चेति । जहा केइ पुरिसे मियवह परिणाम परिणए मियं पासित्ता, आइनाइट्ठिय- कोदंडजीवे सर णिसिरज्जा से मिए तेण सरेण विद्धे, मए सिया। एसा दव्वओ हिंसा भावओ वि - दशवैकालिक हारी. वृत्ति Jain Education International - दशवै. हारी वृत्ति For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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