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________________ कर्मबन्ध का मूल स्रोत : अध्यवसाय ६३ कर्मबन्ध वस्तु से नहीं, अध्यवसाय से ही एक साधु है, वह पांच मंजले भवन में रहता है, निर्दोष भिक्षाचरी से प्राप्त स्वादिष्ट या गरिष्ठ भोजन करता है, इन दोनों स्थितियों में केवल भवन के स्पर्श से था स्वादिष्ट भोजन करने मात्र से-यानी वस्तु से बन्ध नहीं होता, यदि इन वस्तुओं को लेकर राग, ममत्व, मोह, द्वेष, कषाय आदि का अध्यवसाय (परिणाम) आ गया तो उससे कर्मबन्ध होता है। इसीलिए 'समयसार' में स्पष्ट कह दिया है-कर्मबन्ध वस्तु से नहीं, (राग-द्वेष युक्त) अध्यवसाय (परिणाम) से होता है। यह ठीक है कि जीवों के अध्यवसाय किसी न किसी वस्तु या व्यक्ति के निमित्तरूप अवलम्बन को लेकर शुभ या अशुभ हो जाते हैं। जैसे साधु के भव में शिष्य पर क्रोधरूप अशुभ अध्यवसाय के कारण पापकर्मबन्ध के फलस्वरूप मर कर वह चण्डकौशिक सर्प बना, किन्तु चण्डकौशिक सर्प के भव में वात्सल्य मूर्ति भगवान् महावीर के उपदेश के निमित्त से उसका अशुभ अध्यवसाय शुभ में परिणत हो गया। अतः शुभ अध्यवसाय के कारण शुभकर्मबन्ध के फलस्वरूप मर कर वह देवलोक में गया।२ भाव से ही कर्मबन्ध द्रव्य से नहीं : द्रव्य-भाव चतुर्भंगी द्वारा स्पष्टीकरण पंचम श्रुतकेवली चतुर्दशपूर्वविद् आचार्य भद्रबाहु स्वामी-रचित दशवैकालिक सूत्र की नियुक्ति में हिंसा के द्रव्य भाव से सम्बन्धित चतुर्भगी का उल्लेख है। उसमें वे हिंसा के द्रव्यभाव के भेद से चार विकल्पों का संकेत करते हुए कहते हैं- हिंसा की प्रतिपक्षी अहिंसा है। वह द्रव्य और भाव से चार प्रकार की होती है। अहिंसा और अजीवातिपात (अप्राणातिपात) एकार्थक हैं।। उपर्युक्त नियुक्ति द्वारा निरूपित द्रव्य और भाव की चतुभंगी का बहुत ही विस्तृत रूप से महान् श्रुतधर आचार्य जिनदास महत्तर ने दशवैकालिक चूर्णि में, तथा श्री हरिभद्रसूरी ने दशवैकालिक बृहद्वृत्ति में स्पष्टीकरण किया है। दशवैकालिक बृहवृत्ति में हिंसा के अतिरिक्त असत्य, अदत्तादान, अब्रह्मचर्य एवं परिग्रह से सम्बन्धित द्रव्य-भावयुक्त चतुर्भंगी का समीचीनरूप से स्पष्टीकरण किया है। 'चिन्तन के झरोखे में' इसका सुन्दर विश्लेषण किया है।३ सबका तात्पर्य एवं मूल स्वर यही रहा है कि भाव से यानी अध्यवसाय से हिंसा आदि होने पर कर्मबन्ध होता है, केवल द्रव्य से हिंसादि होने पर नहीं। पूर्वोक्त आचार्यद्वय ने हिंसा आदि से सम्बन्धित चतुर्भगी का विश्लेषण इस प्रकार किया है१. वत्थु पडुच्च ज पुण अज्झवसाणं तु होइ जीवाणं । ___ण य यत्युदो दु बंधो, अज्झवसाणेण बंधोऽत्थि ॥ -समयसार गा. २६५ २. देखें-भगवान महावीर : एक अनुशीलन में चण्डकौशिक सर्प का वृत्तान्त ३. (क) हिंसाए पडिवक्खो, होइ अहिंसा चउव्विहा सा उ । दव्वे भावे अ तहा, अहिंसाऽजीवाइवाउ त्ति ॥४५॥ -दशवकालिक भद्र. नियुक्ति (ख) देखें, श्री अमर भारती (अक्टूबर-नवम्बर १९८४) में उपाध्याय आपरमुनिजी का 'द्रव्यभाव-चतुर्भगी' -शीर्षक लेख पृ.-५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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