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________________ ६२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) __ध्यानस्थ प्रसन्नचन्द्र राजर्षि बाहर से देखने वालों को शान्त, समाधिस्थ एवं शुद्ध परिणामलीन दिखाई देते थे; किन्तु सुमुख के द्वारा अपनी प्रशंसा सुनकर वे मन ही मन प्रसन्न हुए और कुछ ही क्षणों बाद दुर्मुख के मुख से अपनी निन्दा तथा अपने गृहस्थ पक्षीय पुत्र से मंत्रियों द्वारा राज्य हथिया लेने के षड्यंत्र रचने की बात सुनी तो अध्यवसायों की धारा शुद्ध से एकदम अशुभ पर पहुँच गई। फलतः वे मन ही मन शस्त्र बनाकर घमासान युद्ध करने लगे। मगधनरेश श्रेणिक नृप द्वारा भगवान् से उनकी गति के विषय में पूछा गया तो उन्होंने उस समय उनकी मति-स्थिति में चल रहे अध्यवसाय के अनुसार सप्तम नरक में गमन का बन्ध बताया। किन्तु कुछ ही समय बाद जब राजर्षि ने शत्रु पर मुकुट फैंकने के लिये मस्तक पर हाथ रखा कि उनके क्रोधावेश का पारा उतर गया। वे अपनी वर्तमान पर्याय का विचार करते हुए पश्चात्ताप की धारा में गहरे उतर गए। आलोचना, निन्दना, गर्हणा, क्षमापना और शुभभावना की प्रबल धारा में बहने के कारण उनके अध्यवसाय एकदम बदल गये। यही कारण है कि श्रेणिक महाराजा के पुनः उनकी गति के विषय में प्रश्न पूछने पर भगवान् ने उनके शुभ अध्यवसायों के अनुसार सर्वार्थसिद्ध विमान में देवगति के बन्ध की सम्भावना बताई। किन्तु उनके अध्यवसाय उत्तरोत्तर शुद्ध होते गए, और उन्होंने क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होकर चारों घातिकर्मों का क्षय किया तथा वीतराग केवलज्ञानी बन गए। निष्कर्ष यह है कि रजोहरण, चादर आदि देष के पहनने से, साधु बन जाने मात्र से, अथवा अमुक ध्यानादि क्रियाएँ कर लेने मात्र से कर्मबन्ध रुक नहीं जाता, क्योंकि कर्मबन्ध का सम्बन्ध अध्यवसाय से है; परिणाम से है। इसीलिए 'समयसार' में कहा गया है-“कर्मबन्ध जीवों के मारने, न मारने पर नहीं; अपितु अध्यवसायों पर निर्भर है। निश्चयनय के अनुसार यही कर्मबन्ध का निष्कर्ष है। अर्थात्-किसी व्यक्ति का जीवों को मारने का अध्यवसाय (परिणाम) हुआ, फिर जीव मरें या न मरें, उसे हिंसारूप पापकर्म बन्ध हो गया।" "हिंसा की तरह असत्य, चोरी, परधन-हरण, धनादि के प्रति ममत्वभाव, और अब्रह्मचर्य का अध्यवसाय करने मात्र से पाप-कर्मबन्ध हो जाता है। अतः शुभ-अशुभ अध्यवसाय ही पुण्य-पाप बन्ध का कारण है;" और शुद्ध अध्यवसाय कर्मक्षय का। १. अज्झदसिदेण बंधो, सत्ते मारेउ वा न मारेउ । एसो बंध-समासो जीवाणं णिच्छय-णयस्स ॥ एवमलिये अदत्ते अबभचेरे परिग्गहे चेव । कीरइ अज्झवसाणं जं तेण दु बज्झए पावं ॥ तह वि-य सच्चे दत्ते बंभे अपरिग्गहत्तणे चेव । कीरइ अज्झवसाणं ज तेण दु बज्झए पुण्णं ॥ -समयसार गा. २६२, २६३, २६४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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