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________________ ६६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) बोलने का विचार करता है और तदनसार असत्य बोल भी देता है। यह भाव और द्रव्य, अर्थात्-मन और वाणी दोनों से असत्य है। इस भंग में असत्य का भाव होने से यह भी असत्य-आम्नव जनित कर्मबन्ध का कारण है। चतुर्थ भंग-न द्रव्य से असत्य और न भाव से असत्य ! यह भंग भी हिंसा के पूर्वोक्त चतुर्थ भंग के समान शून्य है, शब्दोल्लेखमात्र है। क्योंकि इस भंग में द्रव्य-भाव दोनों प्रकार से असत्य का निषेध होने से असत्य की जीवन में कोई स्थिति ही नहीं होती। अतः इसमें कर्मबन्ध का सवाल ही नहीं है।' स्तेय-चौर्य-अदत्तादान-सम्बन्धित चतुर्भगी-(१) प्रथम भंग-राग-द्वेष के भाव से युक्त मुनि किसी प्रयोजन-विशेष से, कहीं पर, किसी की आज्ञा के बिना, जो तणादि वस्तु ग्रहण कर लेता है, वह द्रव्य से तो अदत्तादान-स्तेय है, किन्तु भाव से नहीं; क्योंकि समभावी मुनि के अन्तर्मन में चौर्यवृत्ति जैसा कोई भाव नहीं है। अतः कर्मबन्ध का हेतु नहीं है। व्यवहार सूत्र में बताया है कि किसी विशेष परिस्थिति में अदत्त-वसति के ग्रहण में अदत्तादान-वृत्ति जैसे किसी भाव के न होने से भाव से अदत्तादान नहीं है। इसी प्रकार सर्वारम्भ परित्यागी मुनि को श्वास-उच्छ्वास आदि की सहजक्रिया में वायु-काय आदि को ग्रहण करते समय भी इसी प्रथम भंग में परिगणित किया गया है। फलतः द्रव्य से हिंसा और अदत्तादान होते हुए भी भाव से इन दोनों से मुक्त बताया है। अतः ये सहज क्रियाएँ कर्मबन्धहेतुकी नहीं हैं। , (२) द्वितीय भंग-भाव से अदत्तादान, द्रव्य से नहीं। चोरी करने के भाव (अध्यवसाय) से कोई व्यक्ति किसी की वस्तु चुराने या अपहरण करने को उद्यत तो है, किन्तु किसी कारणवश चुरा या अपहरण कर नहीं पाता। यह भाव से अदत्तादान (चौर्य) है, किन्तु द्रव्य से नहीं। भले ही वह, व्यक्ति चोरी न कर सका हो, किन्तु मन में चोरी करने का भाव (परिणाम या अध्यवसाय) आने से अदत्तादान का यह भावरूप द्वितीय भंग कर्मबन्ध का हेतु है। (३) तृतीय भंग-द्रव्य से भी अदत्तादान और भाव से भी। किसी व्यक्ति के मन में चोरी करने का भाव आया, और तदनुसार उसने चोरी भी कर ली। भाव और द्रव्य से अदत्तादान सम्बन्धी यह तृतीय भंग, कर्मबन्ध का कारण है। १. (क) तत्थ कोवि कहिं वि हिंसुज्जुओ भणइ-इओ तए पसु-मिगाइणो दिट्ठति । सो दयाए दिट्ठा वि भणइ-‘ण दिट्ठन्ति' । एस दव्वओ मुसावाओ न भावओ। (ख) अवरो 'मुस भणीहामि' ति परिणओ, सहसा सच्च भणइ । एस भावओ, न दव्वओ। (ग) अवरो 'मुस भणीहामि' ति परिणओ, मुसं चेव भणइ । एस दव्वओ वि, भावओ वि । (घ) चउत्थो भगो पुण सुनो। -दशवकालिक हारी. वृत्ति (ङ) श्री अमर भारती में उपाध्याय श्री अमरमुनि जी के 'द्रव्य-भाव चर्तुभंगी' शीर्षक लेख से, पृ. १० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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