SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योग-आम्नव : स्वरूप, प्रकार और कार्य ६११ योग के दो रूप :भावयोग और द्रव्ययोग ___ पंचसंग्रह में योग का विशेष लक्षण दिया गया है-“मन-वचन-काय से युक्त जीव का जो वीर्य-परिणाम अथवा प्रदेश-परिस्पन्दरूप प्रणियोग होता है, उसे योग कहते हैं।" . इसी आशय का लक्षण ‘राजवार्तिक' में दिया गया है-“वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से प्राप्त वीर्यलब्धि योग का प्रयोजक होता है, उस सामर्थ्य वाले आत्मा का मनवचन-काय वर्गणावलम्बित, आत्मप्रदेश परिस्पन्दरूप उपयोग योग है।" गोम्मटसार (जीव काण्ड) में योग के दो रूप बताकर इनका पृथक-पृथक लक्षण दिया गया है जो काय-वचन-मनोवर्गणा का अवलम्बन रखता है, ऐसे संसारी जीव की समस्त प्रदेशों में रहने वाली कमों को ग्रहण करने में कारणभूत जो शक्ति है, उसे भावयोग कहते हैं, और इसी प्रकार के जीव के प्रदेशों का जो चलनरूप परिस्पन्द है, उसे 'द्रव्ययोग' कहते हैं। ..भावयोग का एक अन्य लक्षण भी है-“क्रिया की उत्पत्ति में जीव का उपयोग भावयोग है।" योग का वैज्ञानिक विश्लेषण ..योग-आस्रव का विश्लेषण वैज्ञानिक दृष्टि से करें तो योग की विशिष्ट क्रियाप्रक्रिया आसानी से समझ में आ जाएगी। ... योगदर्शन में चित्तवृत्ति निरोध को योग कहा गया है, वह योग यहाँ योग-आम्नव के रूप में विवक्षित नहीं है। वह योग जैनदर्शन में मनःसमाधि या समत्व अथवा मनःसंवर या शुभध्यान कहलाता है। १. (क) तत्त्वार्थ राजवार्तिक ६/२/५१ (ख) तत्त्वार्थसूत्र ६/१,२ (ग) पंचाध्यायी २/४५/१०९-१00 (घ) सर्वार्थसिद्धि २/२६, ६/१ (इ) मणसा वाया कारण वा वि जुत्तस्स वीरिय-परिणामो। जीवस्स (जीह) विप्पणिजोगो जोगोत्ति जिणेहि णिद्दिडो॥ -गोम्मटसार (जीवकाण्ड) २१६/४७२ (च) “वीर्यान्तराय-क्षयोपशम-लब्ध-वृत्ति-वीर्यलब्धिर्योगः।। ___ तद्वत आत्मनो मनोवाक्कायवर्गणालम्बनः प्रदेशपरिस्पदः उपयोगो योगः।" __-राजवार्तिक ९/७/११/६०३ ..(छ) “कायवाङ्मनोवर्गणावलम्बिनः संसारि जीवस्य लोकमात्र-प्रदेशगता कर्मादान-कारणं या - शक्तिः सा भावयोगः। तद्विशिष्टात्मप्रदेशेषु यः किञ्चिच्चलनरूप-परिस्पन्दः स द्रव्ययोगः।" -गोम्मटसार (जीवकाण्ड) जीवतत्त्व प्रबोधिनी २१६/४७३ (ज) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष, भा. ३, पृ. ३९२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy