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________________ ६१० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) आत्मा की स्वीकार की स्थिति में बाह्य भावों से जोड़ने वाला योग ज्ञान आत्मा का अविनाभावी निजीगुण है, स्व-भाव है। आत्मा जब तक स्वभाव की स्थिति में रहता है, तब तक विभाव या परभाव का कोई प्रवेश, संक्रमण या प्रभाव उस पर नहीं होता। आत्मा की मुख्यतया दो प्रकार की स्थितियाँ होती हैं या तो वह स्व-भाव में स्थित रहता है या विभाव में विजातीय तत्त्व में स्थित होता है। जब वह स्व-भाव में, अपने ज्ञान-दर्शन - गुण में ज्ञाता - द्रष्टारूप में स्थिति करता है, तब वह आत्मा बाह्य भाबोंविभावों को अस्वीकार कर देता है। इसके विपरीत जब वह स्व-भाव को स्वकीय ज्ञान - दर्शन गुण को भूलकर विभाव में - विजातीय तत्त्व में स्थित होता है, तब प्रिय-अप्रिय, मनोज्ञ-अमनोज्ञ का यानी राग-द्वेष का संवदेन करने लगता है। यह आत्मा की आम बाह्य भावों के स्वीकार की स्थिति है। आत्म-बाह्य भावों-विभावों के संवेदन की स्थिति में आत्मा बाह्य जगत् के साथ सम्पर्क जोड़ता है। बाह्य भावों के प्रति प्रियता की संवेदनधारा में जब बहने लगता है; तब वह बाहर से कुछ लेकर अपने साथ जोड़ता है। इस जोड़ने का माध्यम बनता हैं - योग । आत्मबाह्य पदार्थों से इस प्रकार जोड़ने की भावधारा को पारिभाषिक शब्दों में योग आस्रव कहते हैं। कर्मपुद्गल-परमाणुओं को बाहर से आकर्षित करके आत्मा के साथ जोड़ने वाला योग-आनव है । ' योग की विशिष्ट प्रक्रियात्मक परिभाषाएँ और लक्षण अनादिकालिक कर्ममलयुक्त जीव जब रागादि कषायों से संतप्त होकर कोई मानसिक, वाचिक या कायिक क्रिया करता है, तब कार्मण वर्गणा के पुद्गल-परमाणु आत्मा की ओर उसी प्रकार आकृष्ट होते हैं, जिस प्रकार लोहा चुम्बक की ओर आकर्षित होता है, अथवा जिस प्रकार आग में तपा हुआ लोहे का गोला पानी में डालने पर चारों ओर से पानी को खींचता है। उपर्युक्त क्रियाओं के करने से आत्मप्रदेशों में उसी प्रकार कम्पन, हलचल, स्पन्दन या विक्षोभ या चांचल्य पैदा होता है, जिस प्रकार समुद्र में तूफान आने पर उसके पानी में विक्षोभ एवं चांचल्य से युक्त तरंगें उत्पन्न होती हैं। जैनदर्शन की भाषा में इस प्रकार आत्मप्रदेशों में परिस्पन्दन होने का नाम 'योग' है। 'योग' के कारण ही कर्मवर्गणा के योग्य पुद्गल-परमाणुओं के आत्मा की ओर आगमन को (योग) आम्नव कहा गया है। विभिन्न पहलुओं से 'योग' के लक्षण और अर्थ का निरूपण हम 'कर्म आने के पाँच आनवद्वार' नामक निबन्ध में कर आए हैं। 9. घट-घट दीप जले Jain Education International पृ. २२ (भावांश) For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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