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योग-आम्रव : स्वरूप, प्रकार और कार्य . ६०९
योग को ही आम्नव कहने का प्रमुख कारण
योग ही मिथ्यात्वयुक्त, प्रमादयुक्त, अविरतियुक्त और कषाययुक्त होकर कर्म पुद्गलों को आकर्षित करके लाता है, और आत्मा से जोड़ता है। कर्मपुद्गल के आकर्षण में चाहे मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय-ये चारों (आसव) विशिष्ट विभावों के रंग में जीव को रंजित कर देते हों, परन्तु जीव में कर्मरूपी जल का आकर्षण-आगमन होता है, मन-वचन-काय-योग के माध्यम से ही। . कषायादि चारों आसव भावानव हैं, वे कर्मों को ग्रहण या आकर्षण करने में सीधे कारण नहीं हैं। ये चारों भाव-आम्रव, जब योगों के साथ मिलते हैं, तभी कर्मों का ग्रहणआकर्षण होता है। अतः योग के सिवाय कषायादि चारों भावानव तो योगों की चंचलता को बढ़ाने, उत्तेजित करने, टिकाने या तीव्र मन्द करने में सहायक होते हैं। एकमात्र योग को ही आस्रव कहने का यही आशय है।' योग को ही प्रमुख आस्रव द्वार कहने का कारण
यों तो संसारी जीव के साथ पहले से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक योग प्रतिक्षण रहता है। अयोगी केवली अवस्था में भी कर्मों से सर्वथा मुक्त होने के पूर्वक्षण तक योग रहता है। उनके भी बादर काययोग से बादर मनोयोग फिर बादर वचनयोग का, फिर बादर उच्छ्वास-निःश्वास तथा बादर काययोग का; तत्पश्चात् सूक्ष्म काय योग से सूक्ष्म मनोयोग तथा सूक्ष्म वचनयोग का, फिर सूक्ष्म काय योग का तथा सूक्ष्म उच्छ्वासनिःश्वास का क्रमशः निरोध होता है। और अन्तिम समय में 'अ इ उ ऋल' इन पाँच लघु स्वरों के उच्चारण काल में सर्वयोगों का निरोध हो जाता है। मन-वचन-काय की चंचलता (क्रिया या योग) का सर्वथा निरोध हो जाने पर पूर्णमुक्त परमात्मा की आत्मा पूर्णतः शुद्ध, सर्वकर्ममुक्त, निर्मल, अशरीरी और निष्प्रकम्प बन जाती है। इस प्रकार की पूर्णमुक्त अवस्था में आत्मा की पूर्ण शुद्ध अवस्था प्रगट हो जाती है। - फिर न तो उनमें कर्मजन्य मलिनता रहती है और न ही योगों की चंचलता। इसलिए बद्ध अवस्था से पूर्णमुक्त अवस्था से पूर्व तक, यानी प्रथम और अन्तिम समय तक संसारी आत्मा के साथ योग-आम्रव ही रहता है, शेष चार आनव नहीं। इसी कारण योग को प्रमुख 'आम्रवद्वार' कहा गया है।
१. (क) तत्त्वार्थसूत्र (विवेचन-पं. सुखलाल जी) पृ. १४८
(ख) काय-वाङ्-मनःकर्म योगः। स आम्रवः।" -तत्त्वार्थसूत्र अ. ६ सू. १-२
(ग) महाबंधो भा. १, प्रस्तावना (पं. सुमेरुचन्द्र दिवाकर), पृ. ६७ २. धवला ६/१,९-२/१६
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