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________________ ६१२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आम्रव और संवर (६) जैनकर्मविज्ञान के अनुसार योग आसवं की परिभाषा पिछले पृष्ठों में अंकित कर दी है। फिर भी वैज्ञानिक दृष्टि से योग-आसव का स्पष्टार्थ इस प्रकार है-जीव द्वारा मन, वचन और काय से की जाने वाली प्रवृत्ति या क्रिया से उत्पन्न आन्तरिक कम्पन-प्रकम्पन ही वस्तुतः योग है। संसारी जीव जब भी कोई क्रिया करता है, तब इन्द्रियाँ, मन, वचन या शरीर क्रियाशील हो जाता है। उसका मन या मनोभाव एक विषय से हटकर दूसरे विषय में प्रयुक्त होता है अथवा एक विचार को छोड़कर दूसरे विचार में प्रवेश करता है; तभी शरीर के आन्तरिक अणु परमाणु कम्पन-प्रकम्पन से युक्त हो जाते हैं। ये कम्पन-प्रकम्पन जीव के भावों की तीव्रता-मन्दता के अनुसार तीव्र-मन्द हो सकते हैं। उन कर्मपुद्गलों का आगमन-आनव तभी होता है, जब योग के साथ मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषायरूप विभावों का रंग मिल जाता है। इन्हीं योग से संयुक्त इन विभावों के कारण व्यक्ति के मनोभावों या क्रियाओं में विकार उत्पन्न होते हैं। उन्हीं से विशेष शक्तिशाली कम्पन-प्रकम्पन उत्पन्न होते हैं। ___ पूर्वोक्त मनोविकारों के साथ होने वाले मन-वचन-काय योग अथवा कम्पन ही. कों के आकर्षण या आगमन (आसव) के कारण होते हैं। ऐसे योग ही हमारे कर्मों के कर्ता, धर्ता या विधाता हैं।' कर्मजनित चैतन्य परिस्पन्दन (कम्पन) ही योग आस्रव का हेतु यों तो विश्व की प्रत्येक छोटी-बड़ी वस्तु, हर एक कण या अणु-परमाणु, ग्रह-उपग्रह तथा उन पर स्थित सब कुछ गतिशील एवं कम्पन-प्रकम्पन से युक्त हैं। इसके अतिरिक्त प्रकाश किरणें, बादलों का गर्जन, विद्युत की.चमक-दमक एवं कड़कन तथा अन्य तीव्र ध्वनियाँ एवं हवाएँ आदि भी कम्पन या परिस्पन्दनं उत्पन्न करती रहती हैं। किन्तु सभी प्रकार के कम्पन या परिस्पन्दन को कर्मानव का कारण माना जाएगा, तब तो मेघ आदि प्रकम्पनयुक्त प्राकृतिक वस्तुओं को भी कमों का आनव मानना पड़ेगा। किन्तु जैनदर्शन में सभी परिस्पन्दन या कम्पन कर्मानव के कारण नहीं माने जाते हैं। यहाँ कर्मजनित चैतन्य परिस्पन्दन या कम्पन ही कर्मानव का कारण माना जाता है। मेघादि प्रकृतिगत वस्तुओं का परिस्पन्द कर्मजनित चैतन्य परिस्पन्द नहीं है, इसलिए उनका परिस्पन्द या कम्पन आसव का हेतु नहीं हो सकता। . इसी प्रकार जीवों के शरीर में श्वास लेने-छोड़ने तथा भोजन का पाचन, रक्त संचालन आदि जो स्वाभाविक क्रियाएँ होती हैं, उनसे भी कम्पन-प्रकम्पन परिस्पन्दन होता है, किन्तु उन स्वाभाविक क्रियाओं की उत्पत्ति में जीव का उपयोग नहीं होता, १. जीवनरहस्य और कर्मरहस्य (आचार्य अनन्तप्रसाद जैन 'लोकपाल') पृ. १०८-११० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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