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________________ योग-आस्रव : स्वरूप, प्रकार और कार्य योग-आम्रव : बद्ध अवस्था से जीवन्मुक्त अवस्था तक संसारी जीवों की बद्ध अवस्था से जीवन्मुक्त (सदेह मुक्त) अवस्था तक योगआम्नव प्रतिक्षण रहता है। अर्थात्-प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर तेरहवें सयोगी केवली गुणस्थान पर्यन्त योग-आम्नव विद्यमान रहता है। पूर्व-निबन्धों में हमने सामान्यतया आम्नव के पाँच कारण बताए थे-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। योग इनमें अन्तिम होते हुए भी आसव के कारणों में योग को प्रथम स्थान दिया गया है। भगवतीसत्र में बताया गया है कि संसारी जीव प्रतिसमय आठ कर्मों में से.आयष्य कर्म के सिवाय सात कर्मों का बन्ध नियमतः करता है। जब बन्ध प्रतिसमय करता है, तब बन्ध का कारण आसव होने से कषाययुक्त जीव के प्रतिक्षण सात कर्मों का आसव भी होता है। आम्रव में योग की और बन्ध में कषाय की प्रधानता ____ अनगार धर्मामृत में आस्रव और बन्ध के पौर्वापर्य का चिन्तन प्रस्तुत करते हुए लिखा है-“प्रथम क्षण में कर्मस्कन्धों का आगमन-आस्रव होता है, आगमन के पश्चात् द्वितीय आदि क्षणों में उन कर्मवर्गणाओं की आत्म-प्रदेशों में अवस्थिति होती है, उसे बन्ध कहते हैं।" कुछ और बातों का भी अन्तर इन दोनों में है-आस्रव में योग की मुख्यता है, और बन्ध में कषाय आदि की प्रधानता है। जैसे-राजसभा में अनुग्रह करने योग्य और निग्रह करने योग्य पुरुषों के प्रवेश कराने में राजकर्मचारी मुख्य होता है, किन्तु प्रवेश होने के पश्चात् उन व्यक्तियों को सत्कृत करने या दण्डित करने में राजाज्ञा मुख्य होती है। . . इसी प्रकार 'योग' की मुख्यता से कर्मों के आगमन (आस्रव) का द्वार खोल दिया जाता है, किन्तु उन समागत कर्मों का आत्मा के साथ एकक्षेत्रावगाह सम्बन्ध (श्लेष) १. भगवतीसूत्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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