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________________ - कर्म आने के पाँच आम्रव द्वार ६०५ पुद्गल कर्मों के आममन का अभिप्राय : ज्ञानावरणादि पर्याय की प्राप्ति .. कर्मों के आगमन (आसव) के सम्बन्ध में जैन कर्मसिद्धान्तसम्मत एक शंका 'भगवती आराधना' में उठाई गई है कि जैन दर्शन के अनुसार कर्मों का अन्य स्थान से आगमन नहीं होता, किन्तु जिस आकाश प्रदेश में आत्मा है, उसी आकाश-प्रदेश में अनन्त प्रदेशी पुद्गलद्रव्य भी है, वही कर्मपर्याय (कर्मरूप) में परिणत हो जाता है। तब फिर ऐसा क्यों कहा जाता है कि (कर्म) पुद्गल आत्मा में आ जाते हैं ? इसका समाधान देते हुए जैनाचार्य कहते हैं-"यह कोई दोष नहीं है। 'पुद्गल (कर्म) द्रव्य आता है' इसका आशय यहाँ इतना ही है कि 'वह पुद्गल द्रव्य ज्ञानावरणीयादि कर्म-पर्याय को प्राप्त होता है।' इसका यह अभिप्राय नहीं है कि पुद्गल द्रव्य कहीं देशान्तर से आकर कर्मावस्था को धारण करते हैं।'' १. "ननु कर्मपुद्गलानां नान्यतः आगमनमस्ति, यत्राऽऽकाशप्रदेशमाश्रित आत्मा, तत्रैवावस्थिताः - पुद्गलाः अनन्त-प्रदेशिनः कर्मपर्यायं भजन्ते;...तत् किमुच्यते आगच्छतीति?" "नैष दोषः, आगच्छन्ति-द्वौकन्ते ज्ञानावरणादि पर्यायमित्येवं ग्रहीतव्यम्।" -भगवती आराधना, (विजयोदया वृत्ति) ३८/१३४/११ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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