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________________ योग-आम्रव : स्वरूप, प्रकार और कार्य ६०७ होता है, साथ ही वह कर्म जिस प्रकृति का हो, उसका वर्गीकरण, व्यवस्था उसके तीव्र मन्दादि रस के अनुरूप अनुभाव व्यवस्था तथा उसकी स्थिति व्यवस्था और प्रदेश व्यवस्था यानी चारों प्रकार के बन्ध के द्वारा उस कर्मानुसार दण्ड व्यवस्था बन्ध के द्वारा होती है। कर्म को प्रवेश कराता है, आम्नव; किन्तु उसका नियमानुसार फैसला करता है बन्ध। योग-आम्नव और बन्ध का अन्तर सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक में भी योग-आम्नव और बन्ध का अन्तर बताते हुए कहा है-“जिस प्रकार भोज्य वस्तु प्रत्येक जीव के आमाशय में पहुँचकर भिन्न-भिन्न रूप में परिणत होती है, उसी प्रकार योग की प्रधानता से आनव द्वारा आकर्षित या प्रविष्ट किये गए कर्मों का आत्मा के साथ संश्लेष होने पर अनन्त प्रकार से परिणमन होता है। बन्ध (बद्ध कर्म) ही जगत में प्राणियों की अनन्त विचित्रताओं, विभिन्नताओं के रूप में वर्गीकरण करता है। योग-आस्रव और बन्ध के कार्य में यही अन्तर है। समयसार में भी इसी तथ्य को प्रस्तुत किया गया है। जैसे-पुरुष के द्वारा खाया हुआ भोजन जठराग्नि के निमित्त से माँस, चर्बी, रुधिर आदि पर्यायों को प्राप्त होता है, उसी प्रकार सचेतन जीव के द्वारा योगों से आकर्षित द्रव्यासव अनेक भेद युक्त कर्मों के बाँधने का कारण बनता है। योग को ही आम्रव क्यों कहा गया, शेष आम्रवों को क्यों नहीं? तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक में एक महत्वपूर्ण शंका उठाई गई है कि तत्त्वार्थ सूत्र में काय, वचन और मन की क्रिया को योग कहकर उसी को आस्रव बताया गया है, जबकि अन्य ग्रन्थों और आगमों में मिथ्यात्व आदि चार हेतुओं को भी आस्रव कहा गया है। प्रश्न होता है-योग को ही आस्रव क्यों, मिथ्यात्वादि को आस्रव क्यों नहीं कहा गया? ... इसका समाधान श्लोकवार्तिक में इस प्रकार है-मिथ्यादर्शन जो ज्ञानावरणादि कर्मों के आगमन का कारण है, वह मिथ्यादृष्टि के ही होता है, सासादन सम्यग्दृष्टि आदि SH - "प्रथम क्षणे कर्मस्कन्धानामागमनमानवः, आगमनानन्तरं द्वितीयक्षणादौ जीव प्रदेशेष्वस्थान बन्ध .इत भेदः। आसवे योगो मुख्यो, बंधे च कषायादिः। यथा राजसभायामनुग्राह्य-निग्राह्ययोः प्रवेशने राजादिष्ट पुरुषो मुख्यः, तयोरनुग्रह-निग्रहकरणे राजादेशः।" -अनगार धर्मामृत पृ. ११२ २. (क) जह पुरिसेण गहिओ आहारो, परिणमइ सो अणेगविह। मंस-वसा-रुधिरादि-भावे उदरग्गि-संजुत्तो। तह णाणिरस दु पुव्वं बद्धा पच्चया बहुविगप्पा। . बझते कम्मं ते सयपरिहीणा उ ते जीवा॥ -समयसार १७९-१८० (ख) सर्वार्थसिद्धि ८/२ (ग) राजवार्तिक ९/७ . (घ) महाबंधो भा. १ प्रस्तावना (पं. सुमेरुचन्द्र दिवाकर) पृ. ६७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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