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________________ कर्म आने के पाँच आम्रव द्वार ५९७ प्रमादी व्यक्ति का धर्माचरण में उत्साह मन्द हो जाता है। विषयवासना, भोजन, राजनीति और देशविदेश की भोगविलास की कथाओं- चर्चाओं में ही उसे आनन्द आता है, आध्यात्मिक विकास की चर्चा में उसकी आन्तरिक रुचि नहीं होती। इस प्रकार प्रमादआसव अविरति और मिथ्यात्व का सहयोगी बनकर योगों की चंचलता को बढ़ा देता चतुर्थ आम्रवद्वार : कषाय और उसका प्रभाव चौथा आसव द्वार है-कषाय। कषाय का उल्लेख हम प्रारम्भ में ही कर चुके हैं। आत्मा का स्वरूप स्वभावतः शुद्ध, शान्त और निर्विकारी है। परन्तु क्रोध, मान, माया और लोभ, ये चार कषाय उसे कलुषित बना देते हैं। स्वरूप से भ्रष्ट कर देते हैं, चित्त को विकृत कर देते हैं, जब तक कषाय रहता है, तब तक संसार से छुटकारा नहीं होता। मूल दोष-राग और द्वेष हैं। माया और लोभ की प्रवृत्ति को राग, तथा क्रोध और अभिमान की प्रवृत्ति को द्वेष जागृत करता है। क्रोधादि चारों कषाय आत्मा की विभाव दशाएँ हैं। मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद-ये कषाय के उदय (दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयकर्म के उदय) से ही निष्पन्न होते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि योगों की चंचलता को बढ़ावा देने में मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद की अपेक्षा कषाय की भूमिका सबसे अधिक है। कषाय योगों की चंचलता को टिकाने और वृद्धिंगत करने में प्रमुख सहायक बनता है। चंचलता को वृद्धिंगत करने में कषाय सब आम्रवों में प्रबल -- चंचलता के द्वारा कर्मपरमाणुओं का आकर्षण होता है, लेकिन कषाय उन कर्मपरमाणुओं को टिकाकर रखते हैं। कषाय को कर्म-परमाणुओं के आगमन के प्रथम क्षण में आस्रव मान गया है, किन्तु है यह प्रमुख रूप से बन्ध का कारण। मन-वचन-काया की चंचलता के द्वारा तो कर्मों का केवल आकर्षण-प्रवेश होता है, किन्तु उन कर्मों को स्थायित्व प्रदान करने वाले बाँधकर रखने वाले तो कषाय ही हैं। कषाय जितना तीव्रतम होगा, उतने ही दीर्घकाल तक कर्मपरमाणु आत्मा के साथ चिपके रहेंगे। कर्मविज्ञान इस तथ्य पर बहुत जोर देता है कि योगों की चंचलता से कर्मपरमाणु आकृष्ट होते हैं, और कषाय के द्वारा वे टिके रहते हैं। कर्मों के टिकने की स्थिति . १. (क) जैनदर्शन (डॉ. महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य) पृ. २२९ । (ख) जैन योग पृ. ३२ २. (क) वही, पृ. ३२ (ख) जैनदर्शन (डॉ. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य) पृ. २२९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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