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________________ ) ५९६' कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) प्रमाद-आनव : स्वरूप और कार्य जब तक जीव में अविरंति और मिथ्यात्व - आम्रव रहते हैं, तब इन दोनों का साथी प्रमाद आनव भी इनका सहयोगी बन जाता है। प्रमाद का अर्थ नींद लेना इतना ही नहीं है, परन्तु अहितकर कार्यों के प्रति सावधान न होना, तथा हितकर या कुशल कार्यों का अनादर करना भी है। आत्मस्वरूप की विस्मृति भी प्रमाद का एक अर्थ है ।" प्रमादावस्था में जीव अपने आत्मस्वरूप को भूलकर आत्मबाह्य इन्द्रिय-विषयों के प्रति सहसा आकर्षित एवं लुब्ध हो जाता है। उसे यह भान ही नहीं रहता कि सांसारिक सुख भोग के साधन, धन-सम्पत्ति, ऐश्वर्य, सत्ता, अधिकार आदि सब नश्वर हैं, ये सदा रहने वाले नहीं हैं, इनसे सुख के बदले दुःख ही अधिक बढ़ता है। . इसके लिए जैन-आगमोक्त नन्दनमणिहार का दृष्टान्त देना उपयुक्त होगा। उसने पौषधोपवास जैसे आध्यात्मिक अनुष्ठान के दौरान अपने व्रत को विस्मृत करके वापिका बनवाने तथा पौषधशाला आदि के निर्माण कराने का विचार करके अपने व्रत और पौषध का भंग कर दिया था। २. संघर्ष, स्वार्थ, मोह एवं अहंकार के आवेश में मनुष्य यह भूल जाता है कि इनसे अशुभ कर्म का बंध होता है। धन और सत्ता सुख के साधन नहीं हैं, इस बात को अनुभवपूर्वक जान लेने और मस्तिष्क में अंकित कर लेने के बावजूद भी मनुष्य जब अपने व्यवहार क्षेत्र में उतरता है, तब इस तथ्य को बिलकुल भूल जाता है। उस समय उसे यही धुन सवार होती है कि 'धन और सत्ता को किसी भी उपाय से प्राप्त कर लेना चाहिए।' ऐसा क्यों होता है ? इसका स्पष्ट उत्तर है कि मिथ्यात्व के साथ ही प्रमाद उभर कर आ जाता है। प्रमादावस्था में मनुष्य का करणीय-अकरणीय का, हित-अहित का बोध धुंधला पड़ जाता है; उसकी जागरूकता, सावधानी एवं कर्तव्य-स्मृति लुप्त हो जाती है । उपशान्त क्रोधादि कषाय पुनः उदित हो जाते हैं और कभी-कभी कुशल कर्म ( शुभ कार्य) के प्रति अनास्था बढ़ जाती है, हिंसा की भूमिका भी तैयार होने लगती है। प्रमादावस्था में मनुष्य का हिंसा-अहिंसा का विवेक भी लुप्त हो जाता है। मनुष्य का मन मदवर्द्धक पदार्थों, इन्द्रिय-विषयभोगों तथा कषायों के प्रति आकर्षित रहता है। N प्रमाद का एक अर्थ अनुत्साह भी है। प्रमादावस्था में अहिंसा, संयम, तप तथा क्षमा आदि धर्मों एवं व्रतों, नियमों के पालन एवं आचरण में शिथिलता आ जाती है। (क) जैनदर्शन ( डॉ. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य) पृ. २२८ (ख) जैन योग पृ. ३२ २. ज्ञाताधर्मसूत्र में नन्दनमणिहार का जीवनवृत्त देखें- अ. १३ १. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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