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________________ ५९८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आस्रव और संवर (६) (कालसीमा) तथा फलदान शक्ति, ये दोनों कषाय की तीव्रता-मन्दता पर निर्भर हैं। अतः संसार को घटाना है तो कषायों को मन्दतर करके क्षय करो।' कषाय के विभिन्न रूप एवं स्तर यही कारण है कि तीव्रतम (अनन्तानुबन्धी) कषाय का जब तक उदय रहता है, तब तक सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होता, तीव्रतर (अप्रत्याख्यानी) कषाय के उदयकाल में देशविरति (आंशिक व्रताचरण) भी नहीं होती, तथा तीव्र (प्रत्याख्यानी) कषाय की उदयावस्था में पूर्णविरति (महाव्रती साधुता) प्राप्त नहीं होती, और मन्द (संज्वलन) कषाय के उदयकाल में वीतरागता (मोहक्षीणता) की स्थिति प्राप्त नहीं होती। पूर्वोक्त चारों कषायों की प्रत्येक की तीव्रता-मन्दता के आधार पर चार-चार . कोटियाँ होती हैं, इस दृष्टि से कषाय के मूल चार और अवान्तर भेद सोलह हो जाते हैं। इन कषायों को उत्तेजित करने वाले नौ नोकषाय हैं। इन्हें नोकषाय इसलिए कहा. गया है कि ये पूर्ण कषाय नहीं, नो-ईषद्-अल्प कषाय हैं। इनके नाम हैं-हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसक वेद।. इस प्रकार चारों कषाय और उनका सारा परिवार योगों की चंचलता को बढ़ाने वाले एवं कर्मों को आकर्षित करने वाले आस्रव भी हैं और कर्मों को टिका कर रखने वाले ‘बन्ध' के कारण भी है। .. इन चारों भावानवों के बिना अकेला योग चंचलता पैदा नहीं कर सकता ____ वस्तुतः योगों की चंचलता को बढ़ाने, तीव्र करने, उत्तेजित करने और रसयुक्त करके आत्मा के साथ कर्मों को बाँधने वाले ये कषाय आदि चारों भावानव-द्वार ही हैं। इनके बिना अकेला योग आसव स्वयं न तो अपने में तीव्रता और चंचलता पैदा कर सकता है, न ही कमों को बाँध सकता है। अतः कर्मपरमाणुओं को प्रवेश कराने में मुख्य कारण योग है और उन्हें बाँधने में मुख्य कारण मिथ्यात्व आदि चार हैं। पाँचों ही आम्रवद्वारों का अपना-अपना महत्व है। आत्मा स्वयं कार्मणवर्गणा के पुद्गलों को आकर्षित नहीं कर सकती। आत्मा के पास एक माध्यम है, जिसके द्वारा वह कर्म-पुद्गलों को आकर्षित करती है। वह माध्यम है-भावानव। भावानव की पाँच शक्तियाँ हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। इन पाँच शक्तियों के माध्यम से आत्मा कर्मपुद्गलों को आकर्षित करती है। ये पाँचों भावानव या भावकर्म हैं। भावानव की इन पाँच शक्तियों को भावचित्त भी कहा जा १. २. जैन योग पृ. २३ वही पृ. २३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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