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________________ ५९० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) प्रेरणा मिलती है, तभी वह बोलता है। पागल या विक्षिप्त के असम्बद्ध बोलने के पीछे भी कोई न कोई गुप्त आकांक्षा की प्रेरणा होती है। कई दफा व्यक्ति मौन धारण करके भी अन्तर में अव्यक्त भाषा के रूप में चिन्तन करता रहता है, इसके पीछे भी कोई न कोई आकांक्षा-अविरति की प्रेरणा होती है। इस प्रकार वचनयोग का-वाणी की चंचलता का प्रेरक भी अविरति आम्नव है।' काया में चंचलता एवं सक्रियता पैदा करने वाला अविरति आस्रव काया की चंचलता अर्थात् काययोग की प्रवृत्ति का प्रेरक भी अविरति आस्रव है। स्पष्ट शब्दों में कहें तो शरीर में सक्रियता, चंचलता या चेष्टा पैदा करने वाला या भटकाने वाला तत्त्व अविरति आस्रव है। विषयसुख के साधनों को पाने और भोगने की जब ललक उठती है तो शरीर उसे पाने के लिए सक्रिय-चंचल हो उठता है। मान लीजिए-कुछ लोग एक जगह प्रवचन सुनने बैठे हैं। पास में ही सड़क पर एक मदारी डुगडुगी बजाकर बंदर का नाच दिखा रहा है। उस समय कुछ लोग तो शान्ति से बैठे रहेंगे, किन्तु कुछ लोग एकदम उठकर सड़क पर हो रहे बंदर के नाच को देखने चले जाएँगे। ऐसा अन्तर इसलिए है कि जिन लोगों की काया के साथ मन में अविरति कम है, उत्सुकता और कुतूहल वृत्ति कम है, वे शान्त भाव से बैठे रहेंगे, किन्तु जिन लोगों में अविरति-आकांक्षा और उत्सुकता प्रबल है, वे सहसा शरीर से उठकर तमाशा देखने . दौड़ पड़ेंगे। बहिर्मुखी ऋषिगण और अन्तर्मुखी जनक राजा याज्ञवल्क्य ऋषि की सभा में सहजानन्द, विरजानन्द आदि कई ऋषि प्रवचन सुनने के लिए उपस्थित थे। किन्तु याज्ञवल्क्य ऋषि ने प्रवचन शुरू नहीं किया। सबसे अन्त में जब जनक राजा आए तभी उन्होंने प्रवचन प्रारम्भ किया। ऋषियों में आपस में कानाफूसी होने लगी कि "याज्ञवल्क्य के मन में राजा का महत्त्व है, हम ऋषियों का नहीं।" ___याज्ञवल्क्य उनकी मनोवृत्ति को भाँप गए। सहसा देवमाया से जनकराज का राजमहल तथा आसपास की सभी कुटियाँ धाय धीय जलती दिखाई दी। यह देख ऋषियों के मन में उथल-पुथल मच गई। किसी ने सोचा- मेरी लंगोटी जल जाएगी, किसी ने सोचा-मेरा तुम्बे का कमण्डलु जल कर भस्म हो जाएगा, किसी ने सोचा-मेरा बिछौना जल जाएगा। यह सोचकर एक-एक करके सभी ऋषि सभा में से उठकर चल दिये। श्रोता में केवल एक जनकराजा शान्तभाव से बैठे रहे। १. २. वही, पृ. ४७ कर्मवाद पृ. ४८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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