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________________ कर्म आने के पाँच आम्रव द्वार ५८९ भवन आदि परपदार्थों की आसक्ति एवं ममता से होने वाले अनिष्टों को जानता है, अनुभव भी करता है, फिर भी व्रतबद्ध या नियमबद्ध होकर उनका त्याग-प्रत्याख्यान नहीं कर पाता । जीने की आकांक्षा और मृत्यु की भीति उसे बार-बार उन परपदार्थों को पाने के लिए प्रेरित करती रहती है। वह इस प्रकार की वृत्ति-प्रवृत्ति से होने वाले अशुभ कर्मबन्ध और उसके फलस्वरूप प्राप्त होने वाले दुःखों की परम्परा को भूल जाता है। पारिवारिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन में परस्पर संघर्ष, छीना-झपटी, स्वार्थलिप्सा एवं कलह-क्लेशों का मूल कारण अविरति की मनोवृत्ति - प्रवृत्ति ही है । " मन की चंचलता के पीछे अविरति की ही प्रेरणा है। निष्कर्ष यह है कि चंचलता या योग-आस्रव के पीछे किसी न किसी कामना के रूप में अविरति छिपी रहती है। कोई भी व्यक्ति किसी न किसी चीज को पाने की इच्छा करता है, तभी मन प्रवृत्त होता है। मन में वह छिपी हुई चाह किसी न किसी रूप में भड़कती है। किसी को वैषयिक सुखोपभोग की आकांक्षा होती है, तो किसी को सुख-सुविधा के साधनों को पाने की मन में ललक उठती है। किसी को सुख पाने और दुःख मिटाने की इच्छा होती है, तो किसी को प्रिय वस्तु या परिस्थिति को प्राप्त करने और अप्रिय वस्तु या परिस्थिति से छुटकारा पाने की कामना होती है, किसी को प्रसिद्धि पाने की और अप्रसिद्धि दूर करने की लालसा होती है, किसी को धन संग्रह करने और निर्धनता से छुटकारा पाने की धुन होती है। ये जो विभिन्न प्रकार की आन्तरिक आकांक्षाएँ - इच्छाएँ हैं, इन्हें जैन कर्मविज्ञान की भाषा में अविरति आम्रव कहते हैं। मन में चंचलता पैदा करने वाला यह अविरति आम्रव ही है। इसके कारण ही मनो-नभ में विभिन्न प्रकार की आकांक्षाओं- अपेक्षाओं के बादल उमड़ते रहते हैं। इसके कारण पदार्थों को पाने की प्यास बुझती नहीं; अधिकाधिक भड़कती रहती है। इस प्रकार परपदार्थों की अमिट चाह का स्रोत अविरति आस्रव है। इसकी मात्रा जितनी अधिक बढ़ती जाती है, मनोयोग की चंचलता भी उतनी ही अधिक होना स्वाभाविक है। 'वचन की चंचलता भी अविरति प्रेरित इसी प्रकार वचनयोग की चंचलता को बढ़ावा देने वाला अथवा बोलने के लिए प्रेरित करने वाला भी यह अविरति आम्नय है। व्यक्ति अपने आप वाणी को मुखरित नहीं करता। उसे बोलने के पीछे कोई न कोई आकांक्षा, इच्छा या कल्पना होती है, तभी वह बोलता है। मनुष्य को किसी आकांक्षा या अपेक्षा के रूप में अविरति आम्रव से बोलने की १. कर्मवाद प्र. ४७ २. वही, पृ. ४७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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