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५८८ कर्म - विज्ञान : भाग - २ : कर्मों का आनव और संवर (६)
योग-आनव का स्वरूप
वास्तव में, 'चंचलता' को ही जैनकर्म विज्ञान की परिभाषा में 'योग' कहा जाता है। चंचलता कहें, हलन चलन कहें, प्रवृत्ति कहें या क्रिया कहें, एक ही बात है। इसी को जैन दर्शन में कहीं स्पन्दन, कहीं कम्पन, कहीं परिणमन और कहीं संकोच - विकोच भी कहा गया है। 'सर्वार्थसिद्धि' और 'राजवार्तिक' में 'योग' का लक्षण दिया गया हैवचनवर्गणा, मनोवर्गणा और कायवर्गणा के निमित्त से होने वाले आत्म- प्रदेशों के. परिस्पन्दन - हलन चलन को योग कहते है । 'धवला' में आत्म-प्रदेशों के संकोच - विकोच (विस्तार) एवं परिभ्रमणरूप परिस्पन्दन को 'योग' कहा गया है। तत्त्वार्थसूत्र' में काय, वचन एवं मन की क्रिया को 'योग' कहा है।
योगों की चंचलता का प्रेरक है- अविरति आम्रव
निष्कर्ष यह है कि योग एक प्रकार की चंचलता है, किन्तु वह चंचलता स्वतः नहीं होती। यंत्र का चक्र घूमता है। वह चाहे बिजली से घूमे, हवा से घूमे, चाहे और किसी साधन से। कोई भी घूमने वाली चीज अपने आप नहीं घूमती । उसे घुमाने वाला उसके पीछे कोई दूसरा होता है। इसी प्रकार योगों की चंचलता के पीछे कोई और प्रेरक होता है। कर्मविज्ञान की भाषा में कहें तो यह योग-आनव अपने आप प्रवृत्त नहीं होता; इसका पृष्ठ पोषक है- अविरति । अविरति की प्रेरणा न हो तो मन, वचन और काया से कोई भी प्रवृत्ति नहीं हो सकती। इस प्रकार अविरति दूसरा आनवद्वार है।
अविरति आम्नव का स्वरूप और कार्य
'अविरति' का शब्दशः अर्थ है - आत्मबाह्य पदार्थों - परभावों से विरति - निवृत्ति न होना। परभावों में रुचि या आकांक्षा तथा स्वभावों के प्रति अरुचि या उपेक्षा अविरति शब्द का फलितार्थ है। दूसरे शब्दों में कहें तो सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक् चारित्र में रुचि या आकांक्षा न होना, अहर्निश सांसारिक सजीव-निर्जीव परपदार्थों को पाने और भोगने की चाह होना अविरति है ।
अविरति के कारण ही मनुष्य के मन में परपदार्थों की, प्रसिद्धि की, प्रतिष्ठा की, स्वार्थ-सिद्धि की लालसा, आकांक्षा, तृष्णा एवं वासना बनी रहती है। वह धन, जन,
(क) योगो वाङ्मनःकायवर्गणा निमित्त आत्म प्रदेश - परिस्पन्दः ।
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(ख) आत्मनो मनोवाक्कायवर्गणालम्बनः प्रदेशपरिस्पन्दः उपयोगो योगः ।
-सर्वार्थसिद्धि ६/१/३१८/५
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- राजवार्तिक ९/७/११/६०३
(ग) जीव-पदेसाणं परिष्कंदो संकोच - विकोचब्भमण-सरूवओ (जोगो)
(घ) काय - वङ्मनः कर्म योगः ।
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-धवला १०/४/२-४/१७५ -तत्त्वार्थसूत्र ६/१
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