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________________ कर्म आने के पाँच आम्रव द्वार ५८७ की गतिविधि से भलीभाँति परिचित हैं, और अपने मन-वचन-काया को सुरक्षित (गुप्तसंवृत) करके रहते हैं, वे इन पाँच द्वारों को खुले नहीं रखते। वे अपने अन्तर के द्वारों को खोलने में ही लगे रहते हैं। अपने आत्म-गुणों को खोजने और आत्मिक आनन्द प्राप्त करने में लगे रहते हैं। सदैव सावधान रहते हैं कि कहीं इन पाँचों आप्नवद्वारों से कर्मपरमाणु प्रविष्ट और संश्लिष्ट न हो जाएँ। कर्मों के आकर्षण और संश्लेषण के लिए मुख्यतया दो द्वार कर्म का आकर्षण, प्रवेश और संश्लेषण तभी होता है, जब मुख्यतया आत्मभवन के दो द्वार खुले हों, और व्यक्ति इससे बेखबर-असावधान हो। ये दोनों मुख्य द्वार हैंयोग-आस्रव और कषाय-आनव। मुख्यरूप से ये दो आम्रवद्वार ही ऐसे हैं, जिनसे कार्मों का आकर्षण, प्रवेश और संश्लेष होता है। योग-आम्नव तेज हवाओं की तरह चंचलता और चपलता का प्रतीक है, और कषाय आम्नव कचरा, गंदगी, अंधेरा, मलिनता आदि का प्रतीक है। ____ योग-आम्नवद्वार खुला होता है तो हवा के समान मन चंचल हो जाता है, वाणी चपल हो उठती है और काया विविध प्रवृत्तियाँ और चेष्टाएँ करने के लिए उतावली हो जाती है। योग-आनव की चंचलता का दिग्दर्शन - योग-आम्नव से होने वाली चपलता बिजली की तरह चंचल होती है, वह स्पष्ट ही प्रतीत होती है, किन्तु कषाय-आस्रव से होने वाला परिणाम स्पष्ट ज्ञात नहीं होता। इसका कारण, योगों (मन-वचन-काया की प्रवृत्तियों) का बैकिंग करने वाला, पीठ ठोकने वाला कषाय ही है। वैसे देखा जाए तो मन, वचन या काय अपने आप में चंचल नहीं होते। लोग प्रायः कह देते हैं-मन बहुत ही चंचल है, वचन उससे कम चंचल है, काया उससे भी कम चंचल है। काया तो स्थिर हो सकती है। उसे निश्चेष्ट करके बैठा जा सकता है, वचन को भी मौन करके स्थिर रखा जा सकता है, परन्तु मन तो बिलकुल अदृश्य है, उसकी भागदौड़ को कैसे कम किया जाए? मन की चंचलता पर बड़े-बड़े योगी एवं साधक भी काबू नहीं पा सके हैं। चंचलता कौन पैदा करता है? प्रश्न होता है-मन आदि त्रिविध योग स्वयं चंचल नहीं हैं तो इनमें चंचलता कौन पैदा करता है? कौन मन के यंत्र को, वचन के मंत्र को और काया के तंत्र को संचालित करके इन्हें चंचल बना देता है? १. देखें-स्थानांगसूत्र में-पंच आसवदारा पण्णत्ता, तं जहा-मिच्छत्तं, अविरती, पमादो, कसाया, जोगा। -स्थानांग. स्था. ५ उ. २, सू. १०९ २. कर्मवाद पृ. ४६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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