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________________ कर्म आने के पाँच आस्रव द्वार ५९१ याज्ञवल्क्य ऋषि ने उनसे कहा-राजन्! आपकी मिथिला नगरी और राजमहल आदि जल रहे हैं, आप भी जाकर संभालिए न ?" जनक राजा ने उत्तर दिया, "ऋषिवर! इसमें मेरा कुछ भी नहीं जल रहा है, मेरा तो मेरे पास ही है।" जो ऋषि सभा में से उठकर चले गए थे, उन्होंने वहाँ पहुँच कर देखा तो कुछ नहीं जल रहा है, सब देवमाया है। सभी ठगे-से रह गए। वापस आकर सभा में बैठ गए। याज्ञवल्क्य ऋषि ने एक-एक ऋषि से पूछा, “आपकी लंगोटी, कमंडलु या बिछौना सही सलामत है न ?" सब लज्जित और निरुत्तर होकर नीचे मुँह कर बैठे रहे।' बहिर्मुखी और अन्तर्मुखी वृत्ति वालों में अन्तर वास्तव में, जो बहिर्वत्ति होता है, उसकी वृत्तियाँ बाहर भटकती रहती हैं, वह किसी भी आकांक्षा से प्रेरित होकर बाहर दौड़ने लग जाता है, परन्तु जिसकी वृत्तियाँ अन्तर्मुखी होती हैं, उसमें बाह्य पदार्थों के प्रति आकर्षण, उत्सुकता या आकांक्षा बहुत कम होती है। यही मनोविज्ञान में उल्लिखित बहिर्मुखी और अन्तर्मुखी वृति का अन्तर है। __जिसकी कामवृत्ति बहिर्मुखी होती है, समझ लो उसमें अविरति प्रबल है, वह सहसा शरीर से काम चेष्टा करने के लिए उद्यत हो जाएगा, किन्तु जिसकी कामवृत्ति अन्तर्मुखी होती है, वह अन्तर में डुबकी लगाता है, अन्तर्मुखी होकर कामवृत्ति का उदात्तीकरण कर लेगा, उसे वात्सल्यरूप में रूपान्तरित कर लेगा। इस प्रकार कामभोग की प्रवृत्ति या सक्रियता के पीछे भी अविरति आस्रव की प्रेरणा होती है। अविरति की प्रबलता-मन्दता पर त्रियोग की अन्तर्मुखी-बहिर्मुखी प्रवृत्ति निर्भर : अविरति प्रबल होती है, तब मानव अपने मन-वचन-काय को बाहर की ओर भटकांता है। वह विषय-वासनाओं में, सुख-साधनों को जुटाने में, तथा अपनी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं की पूर्ति करने में तीनों योगों से बाहर ही बाहर प्रवृत्ति करता है। किन्तु जब अविरति मन्द हो जाती है, तब वह अपने अंदर ही अन्दर झांकता है। उसकी आकांक्षाएँ, आशाएँ, अपेक्षाएँ, स्पृहाएँ और आवश्यकताएँ कम हो जाती हैं। वह .कम से कम साधनों से सहज भाव से आत्मलक्ष्यी प्रवृत्ति करता है। वह जो भी प्रवृत्ति मन-वचन-काय से करता है, वह आत्मौपम्य भाव से, आत्म-भावों से भावित होकर यलाचारपूर्वक करता है। ... भगवद्गीता की भाषा में कहें तो-जो मनुष्य आत्मा में रत है, आत्मा में ही तृप्त है और आत्मा में ही सन्तुष्ट है, उसका कोई भी आत्मबाह्य कार्य नहीं होता। आत्मनिष्ठ व्यक्ति सदैव अन्तर्मुखी, आत्मस्थ अथवा स्थितात्मा होता है। १. मानवतानुं मीठु जगत्, भा. १ (कविवर्य नानचन्द्रजी महाराज) से संक्षिप्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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