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________________ आनव की आग के उत्पादक और उत्तेजक ५८१ प्रति आसक्ति एवं घृणा, अथवा इष्ट विषयों-पदार्थों के प्राप्त होने पर राग और अनिष्ट विषयों का पदार्थों की प्राप्ति होने पर द्वेष करना भयंकर कर्मबन्ध का कारण है। प्रमाद एक प्रकार से जीते-जी मृत्यु है। विषयासक्त मनुष्य अपने हिताहित एवं कर्तव्य - अकर्तव्य को भूल जाता है। उसे यह भान ही नहीं रहता कि किस पदार्थ का या विषय का क्या, कितना और कैसे उपयोग करना चाहिए ? जिस वस्तु को पाने की मन में सनक उठी कि तुरन्त उसकी प्राप्ति के लिए प्रमादी मानव एड़ी से चोटी तक का पसीना बहाने को तैयार हो जाता है। प्राप्त होने पर आसक्त और अहंकारग्रस्त हो जाता है, प्राप्त न होने पर मन में ग्लानि, घृणा, उदासी या मायूसी छा जाती है। काम-भोगों की प्राप्ति ही उसका एक मात्र लक्ष्य रहता है। इससे कितना कर्मबन्धन होगा, इसका भान वह भूल ही जाता है। कषाय: प्रमाद का तृतीय अंग कषाय तो सरासर प्रमादवर्द्धक है ही। शास्त्र में क्रोध, मान, माया और लोभ, इन चारों कषायों को साक्षात् अग्नि कहा गया है, ये चारों प्रमाद - परिपोषक हैं, ये बार-बार जन्म-मरण या पुनर्जन्म की जड़ को सींचने वाले कहे गए हैं। ये रागद्वेष के प्रत्यक्ष सहायक हैं। माया और लोभ राग की प्रवृत्ति के उत्तेजक हैं, जबकि क्रोध और अभिमान द्वेष की प्रवृत्ति के प्रवर्द्धक हैं। कषाय ही संसार परिभ्रमण की अवधि में वृद्धि करने वाले है। इसलिए कषायों को प्रमाद की आग को बढ़ाने वाले ठीक ही कहा गया है। ' निद्रा : प्रमाद का चतुर्थ अंग इसके पश्चात् प्रमाद का संवर्द्धक एवं उपजीवक है-निद्रा । सामान्यतया निद्रा में मनुष्य मृतवत् हो जाता है, अपने व्रत, नियमों से बेखबर रहता है। आलस्य एवं असावधानी भी निद्रा का ही अंग है । निन्दा, चुगली या परपरिवाद भी भावनिद्रा है। . मनुष्य प्रायः इनमें इतना रस लेता है कि अपने कर्तव्य एवं समय का भी उसे भान नहीं रहता । व्यर्थ की गप्पें हांकना, इधर-उधर की व्यर्थ की बातों में स्वयं उलझना भी भावनिद्रा है। इसमें पड़ने वाला अपने सत्कार्य के समय या अवसर को चूक जाता है। अतः द्रव्यनिद्रा हो या भावनिद्रा दोनों ही प्रमाद' की साक्षात् पृष्ठपोषिका हैं। कर्मबन्धन से बचने के लिए इनसे दूर रहना चाहिए। १. (क) कसाया अग्गिणो वुत्ता - उत्तरा . अ. २३/५३ (ख) चत्तारि एए कसिणा कसाया सिंचंति मूलाई पुणब्भवस्स । - दशवैकालिक ८/४० २. (क) पंच संग्रह में प्रमाद के १५ भेद बताए गए हैं-४ विकथा, ४ कषाय, ५ इन्द्रिय, १ निद्रा, -पंच संग्रह (प्राकृत) गा. १/१५ (ख) भगवती आराधना (विजयोदया टीका ६१२/८१२/४ ) में भी ये ही पाँच प्रकार हैं-" प्रमादः पंचविधः विकथाः कषायाः, इन्द्रियविषयासक्तता, निद्रा, प्रणयश्चेति । १ प्रणय | Jain Education International' For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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