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________________ ५८० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) प्रमाद के अंगभूत संगी-साथी पाँच है प्रमाद अकेला ही नहीं है, उसके अंगभूत संगी-साथी पाँच हैं - (१) मद्य (मद), (२) विषय, (३) कषाय, (४) निद्रा (या निन्दा) और (५) विकथा ।' मद्य: प्रमाद का प्रथम अंग मद्य उन वस्तुओं को कहते हैं जिनका सेवन करने से बुद्धि लुप्त (नष्ट-भ्रष्ट ) हो जाए, मनुष्य अनुचित कार्य या कुकृत्य करने पर उतारू हो जाय । ऐसी नशीली वस्तुओं में शराब, भांग, गांजा, अफीम, ब्रांडी, ह्विस्की आदि हैं। इनका सेवन करने से आदमी' उन्मत्त एवं प्रमत्त होकर चाहे जैसी चेष्टा करने लग जाता है, अंटशंट बकने लगता है, अकथ्य कथन करने लगता है। इसी प्रकार आठ प्रकार के मद (अहंकार) को बढ़ाने वाले तत्त्व भी मद्य कहलाते हैं । मद के आठ स्थान ये हैं- ( १ ) जातिमद, (२) कुलमद, (३) बलमद, (४). रूपमद, (५) तपोमद, (६) श्रुत (ज्ञान) मद, (७) लाभमद और ( ८ ) ऐश्वर्य ( प्रभुतासत्ता) मद । इन आठ मदों के रहते मनुष्य गर्वोद्धत होकर दूसरों को तुच्छ, नीच और घृणित तथा स्वयं को श्रेष्ठ, उच्च और प्रशंसनीय समझने लगता है। वह दूसरों का तिरस्कार और अपमान करने से नहीं चूकता । इसी कारण अहंकार के नशे में वह अपना यथार्थ मूल्यांकन नहीं कर पाता । अतः ईर्ष्या और द्वेष से ग्रस्त रहता है। प्रमाद की आग को बढ़ाने में किसी भी प्रकार का मद सहायक हो सकता है। मद को सम्यक्त्व का नाशक और मिथ्यात्ववर्द्धक भी कहा गया है। मदग्रस्त मानव किसी गुणवान पुरुष के गुणानुवाद नहीं कर सकता, जानते हुए भी सत्य तथ्य को स्वीकार नहीं कर पाता। किसी दूसरे की उन्नति या तरक्की नहीं देख सकता, न ही किसी दूसरे से कोई अच्छी बात या तत्त्वज्ञान सीख सकता है। विनम्रता, मृदुता, कोमलता, सहृदयता या सरलता से मदमत्त व्यक्तियों कोसों दूर रहता है। प्रमाद का द्वितीय अंग : विषयासक्ति दूसरा प्रकार है- विषय अर्थात् पाँचों इन्द्रियों के विषयों में, सांसारिक परपदार्थों में आसक्ति । पाँचों इन्द्रियों के मनोज्ञ विषयों पर राग और अमनोज्ञ विषयों पर द्वेष ही अप्रमाद का सबसे बड़ा शत्रु है। इसीलिए भगवान् ने "प्रमाद को ही कर्म का मूर्तरूप बताया है, और अप्रमाद को अकर्म रूप।" पाँचों इन्द्रियों के विषयों में या परपदार्थों के 9. २. "मज्जं विसय कसाया निद्दा विगहा य पंचमी भणिया ।" - कर्मग्रन्थ भा. १ "अट्ठ मयट्ठाणा पण्णत्ता तं जहा - जातिमए कुलमए बलमए रूवमए तबमए सुयमए लाभमए इस्सरियम |" - समवायांग ८वाँ समवाय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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