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________________ आम्नव की आग के उत्पादक और उत्तेजक ५७९ अविरति की इन पाँचों सन्तानों का भी परिवार काफी बड़ा है। यहाँ विस्तारभय से हम उनका उल्लेख नहीं करना चाहते। जिज्ञासुजन प्रश्नव्याकरण सूत्र में इन पाँचों आनवद्वारों का विस्तृत वर्णन पढ़कर अपनी जिज्ञासा शान्त कर सकते हैं।' आम्रवाग्नि का तृतीय उत्पादक और सहायक प्रमाद ___ इसके पश्चात् आम्नव की आग का उत्पादक या सहायक है-प्रमाद। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जिनमें मिथ्यादृष्टि की आग भी नहीं है, और न ही अविरति की आग है, किन्तु प्रमाद आस्रव का पावक उनमें सतत जलता रहता है। मिथ्यात्व की आग अधिक से अधिक तीसरे गुणस्थान तक प्रज्वलित रहती है, और अविरति की आग चतुर्थ गुणस्थान तक जलती है, किन्तु प्रमाद की आग तो छठे गुणस्थान तक जीव में प्रज्वलित रहती है। प्रमाद का दायरा पूर्वोक्त दोनों आम्रवों के उत्पादकों से विस्तृत है। प्रमाद का अर्थ है-आत्मविस्मृति, अपने आप को या आपे को भूल जाना। मनुष्य प्रमाद के चक्कर में पड़ कर अपने आप को, अपने कर्तव्य को, अपने हिताहित को अपने नियमव्रत-मर्यादा को, अपनी संस्कृति और आत्मा के निजी गुणों को भूलकर पर-पदार्थों, परभावों या विभावों के प्रवाह में बहने लगता है। उसमें समय पर जागृति, सावधानी, जागरूकता या सतर्कता नहीं रहती। वह जानता सब कुछ है, व्रत-नियम भी ग्रहण करता है, सामायिक, पौषध आदि धार्मिक क्रियाएँ भी करता है, किन्तु उस समय परपदार्थों का, सावध प्रवृत्तियों का चिन्तन करने लगता है, अथवा अपने व्रत, नियम की विधि का ध्यान नहीं रखता, भूल पर भूल करता जाता है। लिया था नियम कि “आज. पाँचों विकृति कारक पदार्थों (विगई) का त्याग करता हूँ" किन्तु घर आते ही पत्नी की मनुहार होते ही दूध पी गया। रात्रि भोजन का त्याग किया था, किन्तु भान ही नहीं रहा, "रात्रि भोजन कर लिया।" इस प्रकार के अनेक त्याग-प्रत्याख्यान, नियम, व्रत लेकर अश्रद्धा पैदा हो जाना, उनके पालन में अनुत्साह रखना, अनादर करना, कर्तव्य पालन में शिथिलता रखना, कर्तव्य, धर्म या दायित्व के पालन में आलस्य कर देना, निद्राधीन होकर या किसी नशीली चीज का सेवन करके नशे में चूर होकर सेवा, कर्तव्य, दान, शील, तप या समाधि पालन का अवसर खो देना इत्यादि भी प्रमाद के अंग हैं। प्रमाद की चिनगारी आम्नव (कमों के आगमन) की आग को प्रज्वलित करने, बढ़ाने और फैलाने में सहायक बन जाती है। १. देखें-प्रश्नव्याकरण सूत्र में हिंसा आदि पाँच आम्रवद्वारों का वर्णन। २. "प्रमादः सकषायत्वम्" -सर्वार्थसिद्धि ७/१३/३५१/२ ३. “स च प्रमादः कुशलेषु (शुभकार्येषु) अनादरः ।" -राजवार्तिक ८/१/३०/५६४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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