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________________ ५७८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कमों का आनव और संवर (६) अविरति की चौथी सन्तान : अब्रह्मचर्य इसके पश्चात् अविरति की आग को अधिकाधिक तीव्र करने वाली चौथी अब्रह्मचर्य की चिनगारी है। यह मनुष्य में कामवासना, सब प्रकार की मैथुनवृत्ति, कामोत्तेजना, विषयभोगों की तीव्र अभिलाषा, ऐशआराम करने की, व्यर्थ ही वीर्यपात करने की तथा गुंडापन अपनाने की वृत्ति को बढ़ावा देती है। कामवासना की आदत का शिकार मानव दूसरों की बहू-बेटियों को ताकता रहता है, भय और प्रलोभन देकर किसी भी महिला से अनाचार सेवन करने को उद्यत हो जाता है। वह समय-कुसमय, पाप-पुण्य, हिताहित, गम्य-अगम्य, कर्त्तव्य-अकर्तव्य का कोई विचार नहीं करता। परस्त्रीगमन और वेश्यागमन से ही नहीं, कुमारी कन्या, गुरुपली तथा अपनी मातृतुल्या चाची, मामी, भाभी आदि के साथ भी संगम करने में कोई परहेज नहीं करता। वह कुशील त्याग करने का विचार ही नहीं करता। आए दिन किसी प्रकार से सदाचार और शील की मर्यादाओं का अतिक्रमण करता रहता है। वह नियमबद्ध या व्रतबद्ध होना ही नहीं चाहता। इस प्रकार अब्रह्मचर्य' अविरति की आग को भड़काता रहता है, वह अब्रह्मचर्य से विरत होने ही नहीं देता। अविरति की पाँचवी सन्तान : परिग्रह ____अविरति की आग को उत्तेजित करने वाली पाँचवीं चिनगारी है-परिग्रह। परिग्रह मानव को संयम और व्रतनियमबद्धता के पास ही नहीं फटकने देता। वह उसके धन और विषयसुख-साधनों की आकांक्षा, लालसा और लोभवृत्ति को रात-दिन बढ़ाता रहता है। परिग्रह-ग्रस्त मानव सांसारिक पदार्थों का पिपासु ही बना रहता है, उसकी प्यास कभी शान्त नहीं होती। उसमें उत्तरोत्तर अधिकाधिक धन और भोग-विलास के साधनों को पाने और उनका उपभोग करने की चाह बढ़ती जाती है। वह परिग्रह के सर्वथा त्याग की बात तो स्वप्न में भी नहीं सोच सकता, परिग्रह की मर्यादा (सीमा) करने की बात से भी कतराता है; उलटे वह महापरिग्रही बनने के लिए आतर होता है। उसकी व्याकुलता और अशान्ति, आवश्यकता और महत्त्वाकांक्षा दिनानुदिन बढ़ती जाती है। फिर उसे अपने समग्र जीवन में बल्कि जिंदगी की अन्तिम घड़ी में भी अपरिग्रहवृत्ति, संतोषवृत्ति अथवा परिग्रह परिमाण की बात नहीं सुहाती। उसकी खानपान-लोलुपता, धनलिप्सा, भोगविलास के साधनों को पाने की लालसा, दूसरों के धन को हड़पने की ललक तथा सुख-सुविधाओं के साधन जुटाने की इच्छा जिंदगी में कभी मिटती नहीं, बल्कि बढ़ती ही जाती है। इसलिए परिग्रह अविरति की आग को अधिकाधिक तेज करने वाला अविरति का परम साथी है। १. मैथुनमब्रह्म। -तत्त्वार्थसूत्र ७/११ २. मूर्छा परिग्रहः। -वही, ७/१२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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