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________________ आम्रव की आग के उत्पादक और उत्तेजक ५७७ अविरति की दूसरी संतान : मृषावाद अविरति की आग को भड़काने में दूसरा निमित्त है-मृषावाद या असत्य।' असत्य भी ऐसी चिनगारी है, जो मनुष्य को क्रोधवश, ईर्ष्यावश, लोभवश, स्वार्थवश या भयवश झूठ-फरेब करने, ठगी करने, धोखाधड़ी करने, वाग्जाल में फंसाने, दूसरों पर दोषारोपण करने, निन्दा चुगली करने, छल-कपट करने, धरोहर को हड़प जाने और झूठी साक्षी देने, झूठे दस्तावेज या लेख लिखने, षड्यन्त्र रचने तथा जालसाजी करने के लिए असत्य आचरण करने को प्रेरित करती है। ____ असत्य मनुष्य को मृषानुबन्धी रौद्रध्यान के लिए प्रेरित करता है, जिससे भयंकर पापकर्मों का बन्ध हो जाता है। असत्य भी ऐसी चिनगारी है, जो अविरति आस्रव की आग को उत्तेजित करती है, जिससे मनुष्य एक बार झूठ बोलने एवं असत्याचरण करने की आदत का शिकार होने पर उससे विरत नहीं हो पाता। उसमें लोभ, स्वार्थ, दम्भ, छल, ठगी,जालसाजी आदि दुर्गुण बढ़ते जाते हैं। अन्ततोगत्वा मनुष्य को वह घोर पतन के गर्त में धकेल देता है। अविरति की तीसरी संतान चोरी - इसके पश्चात् अविरति की आग को अधिकाधिक प्रज्वलित करने वाली तीसरी चिनगारी चोरी है। चोरी एक ऐसा पलीता है, जो मनुष्य को दूसरों का जान-माल हरण करने, दूसरों के अधिकार छीनने, लूटपाट, छीनाझपटी, तस्करी, गिरहकटी, जेबकतरी, बेईमानी, डकैती, तस्करी, हत्या, क्रूरता और निर्दयता के लिए प्रेरित करती है। . चोरी करने वाला अपने और दूसरे के हिताहित, कल्याण-अकल्याण, कर्तव्यअकर्तव्य, राजदण्ड, समाजदण्ड, बदनामी आदि को नहीं देखता, सोचता। वह चोरी करने के फन को अपना गौरव समझता है। : एक बार चोरी की लत पड़ जाने पर वह छूटनी अत्यन्त कठिन हो जाती है। चोरी . करने का पेशा तो और भी भयंकर है। कई बार तो चौर्यकर्म करने वालों को गरीबों की हाय ऐसी लग जाती है कि उसका फल प्रियजन की मृत्यु या भयंकर रोगोत्पत्ति के रूप में उसी जन्म में मिल जाता है। अतःचोरी भी जीव को इस पापकर्म के आसव से विरत नहीं होने देती, बल्कि यह अविरति की आग में ईंधन का काम करती है। चौर्य कर्म करने वाला स्तेनानुबन्धी रौद्रध्यान का शिकार होकर घोर पापकर्म बंध करके दुर्गति में जाता है, वह कभी-कभी इस जन्म में या आगामी जन्म में दरिद्र हो जाता है। १. असदभिधानमनृतम् -तत्त्वार्थसूत्र ७/९ २. अदत्तादानं स्तेयम्। - वही ७/१0 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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