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________________ ५७६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) मिथ्यात्व की आग की लपटों से दूर रहता है, किन्तु उसमें अविरति या अव्रत की आग भयंकर रूप से प्रज्वलित रहती है। अविरति की आग से उसका मन-मस्तिष्क सांसारिक पदार्थों की चाह से इतना व्याकुल रहता है कि वह किसी भी वस्तु की प्राप्ति की लालसा को छोड़ नहीं सकता। खान-पान, रहन-सहन, धन-सम्पत्ति, मकान आदि किसी वस्तु का त्याग, नियम, मर्यादा या विरति से वह दूर भागता है। आकांक्षाएँ, आवश्यकताएँ एवं लालसाएँ बढ़ाने में ही वह जीवन की सार्थकता समझता है। वह रात-दिन इसी उधेड़-बुन में रहता है, कि किसी तरह से मेरे कार, कोठी, बंगला हो जाए और तिजोरी रुपयों से छलाछल भर जाए। इस प्रकार अहर्निश तीव्र असंयम और कष्ट की आग में वह झुलसता . रहता है। अविरति की मुख्य पाँच संतान : अहिंसा प्रथम सन्तान . अविरति अकेली ही आसव की आग की उत्पादक नहीं है, अपितु उसके साथ ही. उसकी मुख्य पाँच संतान हैं। वे हैं-हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह।' . हिंसा की आग जब जीवन में आती है, तब व्यक्ति अहिंसा, क्षमा, मैत्री, करुणा, अनुकम्पा और दया को भूल जाता है। हिंसा से प्रेरित होकर जीव स्वार्थान्ध बनकर दूसरों की जिंदगी को बर्बाद करने पर उतारू हो जाता है। हिंसानुबन्धी रौद्रध्यान के वशीभूत होकर मानव दूसरों की हत्या, निर्दोष पशुओं की बलि, शिकार, मांसाहार तथा दंगा, आगजनी और मार-पीट करने को तैयार हो जाता है। हिंसा का उन्माद मानव को दानव बना देता है। वह दहेज के नाम पर निर्दोष महिला की हत्या करने को, सताने को और जला डालने को उद्यत हो जाता है। कभी धर्म के नाम पर, कभी जाति-कौम के नाम पर और कभी राष्ट्र के नाम पर मनुष्य स्वार्थान्ध होकर नरसंहार करने पर उतारू हो जाता अतः हिंसा ऐसी आग है, जो सहसा छूट नहीं पाती और मनुष्य अहिंसाव्रती नहीं हो पाता। इस प्रकार अविरति की आग को भड़काने वाली सर्वप्रथम चिनगारी यह हिंसा है। हिंसा ही है, जो मनुष्य में क्रूरता, निर्दयता, क्रोधान्धता, लोभान्धता और जाति आदि मदों की उन्मत्तता लाती है। वह मनुष्य में दया, क्षमा, मृदुता, सरलता, करुणा, अनुकम्पा, शान्ति, निरहंकारिता एवं निर्लोभता के भाव नहीं आने देती। अतः हिंसा अपने आप में प्रचण्ड आग है, ज्वाला है। वह हिंसानुबन्धी रौद्रध्यान के लिए प्रेरित करके घोर पापकर्मों का बंध करा देती है। १. द्रव्यसंग्रह ३०/८८ २. प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा | -तत्त्वार्थसूत्र ७/८ ३. देखें-रौद्रध्यान का लक्षण भेद सहित-'हिंसाऽनृत-स्तेय-विषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रम्..... " -तत्त्वार्थसूत्र ९/३६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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