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________________ आम्रव की आग के उत्पादक और उत्तेजक ५७५ आमवाग्नि का प्रथम उत्पादक व सहायक : मिथ्यात्व प्रश्न होता है-निरन्तर जलने वाली इस भावाग्नि का उत्पादक कौन है ? शास्त्रीय दृष्टि से टटोलें तो इसके उत्पादक चार बताए गए हैं। इस आग का प्रथम उत्पादक-आग लंगाने में सहायक मिथ्यात्व है। जिस व्यक्ति में मिथ्यात्व या मिथ्यादृष्टि आसव की आग लगती है, वह व्यक्ति दुःख को सुख और सुख को दुःख मानने लगता है। अपनी मिथ्या मान्यता और मिथ्या आग्रह को नहीं छोड़ता। मिथ्यात्व की आग के प्रभाव से व्यक्ति कहीं रागान्ध और कहीं मोहान्ध, कहीं स्वार्थान्ध और कभी धर्मान्ध हो जाता है। वह अपने एकांगी दृष्टिकोण को ही पकड़े रहता है, सत्य को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होता। जैसे ज्वरग्रस्त व्यक्ति को मीठी वस्तु भी कड़वी लगती है, इसी प्रकार मिथ्यात्व आनव की आग से ग्रस्त व्यक्ति को सच्ची बात भी कटु और मिथ्या लगती है। अयथार्थ दृष्टिकोण के प्रभाव से उसे आत्मस्वरूप की यथार्थ प्रतीति नहीं होती, सदैव भ्रान्ति बनी रहती है। .. मिथ्यात्व आम्नव के समग्र संसारी जीवों की दृष्टि से दो भेद बताए गए हैं-गृहीत मिथात्व और अगृहीत (सहज) मिथ्यात्व।' गृहीत मिथात्व में जानबूझकर मनुष्य विपरीतमार्ग को पकड़ने के लिए उद्यत रहता है, उसे ही यथार्थ मानता है। अगृहीत मिथ्यात्व एकेन्द्रियादि जीवों में होता है, जो बिलकुल बोध रहित हैं। इसी प्रकार मिथ्यात्व के ५ भेद बताए गए हैं-(१) एकान्त (२) विपरीत (३) एकान्त विनय, (४) संशय और (५) अज्ञान मिथ्यात्वा .. . जिस जीव में मिथ्यात्व की आग लगती है, वहाँ एकान्तरूप से हठाग्रहपूर्वक किसी गलत बात को पकड़े रहने की वृत्ति हो जाती है। कभी वस्तु को विपरीत रूप में जानने-मानने की दृष्टि बन जाती है, कभी किसी बात को समझे-बूझे बिना सबकी हाँ में हाँ मिलाने की और 'गंगा गये गंगादास, जमुना गये जमुनादास' वाली कहावत के अनुसार सबकी ठकुरसुहाती और जी हजूरी करने की वृत्ति हो जाती है। कभी व्यक्ति संशय और दुविधा में पड़ा रहता है कि यह सच है या वह सच है? वह सहसा सत्य का निर्णय नहीं कर पाता और कभी तो अज्ञानान्धकार में पड़ा रहता है, न तो वह वस्तु तत्त्व को जानता है, और न जानने की उसमें रुचि ही होती है। आनवाग्नि का द्वितीय उत्पादक व सहायक : अविरति या अव्रत कुछ व्यक्तियों में मिथ्यात्व आप्नव की आग इतनी तीव्र नहीं होती, अथवा वह 9. जैनदर्शन (डॉ. महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य) पृ. २२७ २. धवला १/१/९/१६२/२ For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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