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५७४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) आवश्यक है। ताकि कर्मों के आगमन के स्रोत-आसव आत्मा में प्रविष्ट होकर उसकी छवि को न बिगाड़ सकें, उसकी शक्ति को कुण्ठित न कर सकें। कुछ आग लगाने वाले, कुछ आग में पूला डालने वाले तत्त्व ___लोकव्यवहार में हम देखते हैं कि कुछ लोग दियासलाई आदि रगड़कर आग लगा देते हैं, कुछ लोग उस आग में पूला डालकर उसे और अधिक भड़का देते हैं। वह भड़की हुई आग मकान को जलाकर भस्म कर देती है। इसी प्रकार आस्रव की आग लगाने वाले चार तत्त्व हैं, और उस आग को भड़काने वाला-उत्तेजित करने वाला एक तत्त्व है। ये पाँचों ही मिलकर आत्म भवन को विकृत और भस्मीभूत कर देते हैं। नमि राजर्षि के सामने यही इन्द्र-प्रश्न था : आपके समक्ष भी यही
उत्तराध्ययन सूत्र में एक संवाद नमि राजर्षि और इन्द्र का प्रतिपादित है। इन्द्र विप्रवेष में आकर नमि राजर्षि के देहगेह के प्रति अनासक्ति की परीक्षा के हेतु कहता है"भगवन्! यह अग्नि और यह पवन, आपके मन्दिर (प्रासाद) को जला रहे हैं। अतः आप अपने अन्तःपुर (रनिवास) की ओर क्यों नहीं देखते? उसकी रक्षा करना आपका, कर्तव्य है।"
यही बात यहाँ विचारणीय है। यह आम्रवरूपी अग्नि, आग लगाने वालों और उसे भड़काने वालों द्वारा लगाई जा रही है और आपके आत्मारूपी मन्दिर को जलाकर भस्म कर रही है, विकृत बना रही है। आप इससे आत्मा को बचाकर अपने ज्ञानादि गुणों की निधि को सुरक्षित करिये। मूल आग है-रागद्वेषरूप आसव हेतु की
परन्तु सांसारिक जीव के जीवन में यह आग तब तक भड़कती रहती है, जब तक वह बारहवाँ गुणस्थान प्राप्त नहीं कर लेता। कर्म आसव के मूल कारण राग-द्वेष हैं। बारहवें गुणस्थान से पूर्व तक ऐसा एक भी क्षण नहीं आता कि राग-द्वेष की आग बुझ जाए। बाहर से मौन और शान्त होकर ध्यान में बैठे हुए व्यक्ति को स्थूलदृष्टि से देखने वाले लोग कह देते हैं-कितना शान्त है। किन्तु उस शान्त बैठे हुए व्यक्ति को आप गहराई से टटोलेंगे तो प्रतीत होगा कि उसके अन्तर्मन में भी रागद्वेष की आग सुलग रही है। कभी वह थोड़ी देर के लिए अग्नि पर आई राख की तरह उपशान्त दिखाई देगी, किन्तु निमित्त मिलते ही भभके बिना नहीं रहेगी। ध्यानस्थ प्रसन्नचन्द्र राजर्षि का जीवन वृत्तान्त इस सम्बन्ध में दृष्टव्य है।
१. एस अग्गी य वाऊ य, एवं डज्झइ मंदिरं।
भयवं अंतेउरं तेणं, कीस णं नावपेक्खह॥ २. जैन योग पृ. ४२ (भावांश)
-उत्तराध्ययन ९/१२
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